Friday, March 29, 2024
Homeविजय गुप्ता की कलम सेलाॅकडाउन समापन की ओर देर आए दुरुस्त आऐ, लौट के बुद्धू घर...

लाॅकडाउन समापन की ओर देर आए दुरुस्त आऐ, लौट के बुद्धू घर कू आऐ

 

विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। देर आऐ दुरुस्त आए, लौट के बुद्धू घर कू आऐ, वाली कहावतों के अनुसार सरकार आखिरकार अब
लाॅकडाउन के समापन की ओर बढ़ चली जो स्वागत योग्य है। किंन्तु इस कार्य को बहुत पहले ही कर लिया
जाता तो बहुत अच्छा होता, कम से कम दो पाटों के बीच असहाय मजदूरों और गरीबों को अकारण
नहीं पिसना पड़ता।
खैर जो भी हो यदि सुबह का भूला शाम को लौट आता है तो वह भूला नहीं कहलाऐगा। परन्तु
बार-बार मन में टीस उठती है कि बीता समय तो ऐसा दुखद स्वप्न की तरह गुजरा जिसको याद करके रूह कांप
उठती है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने जो साहसिक निर्णय लिया वह देश के भले के लिऐ
था। किंन्तु उन्हें भी यह पता नहीं होगा कि इसके परिणाम आशा के अनुकूल नहीं प्रतिकूल साबित
होंगे। इसमें सबसे ज्यादा दोष निचले स्तर के उन अधिकारियों व कर्मचारियों का रहा जो कार्यान्वन
प्रक्रिया में असफल रहे और नित्य नये तुगलकी फरमान जारी करते थे। कई-कई दिनों तक बच्चे दूध के
लिए तरसते रहे और तो और पीने के पानीं को भी तरसना पड़ा।
सबसे ज्यादा अन्याय और अत्याचार बेचारे उन मजदूरों पर हुऐ जो भूखे प्यासे सैंकड़ों, हजारों मील
तक घिसटते, सिसकते और तड़पते हुए चलते रहे। अनेकों की मौत हो गई और लाखों अब भी बेघर
हैं तथा घर पहुंचने के लिए छटपटा रहे हैं।
कुछ लोगों ने न सिर्फ आत्महत्या की, बल्कि खुद मरने से पहले अपने परिवार तक को मौत के घाट उतार
दिया। हे भगवान! ऐसा वीभत्स समय आगे कभी न दिखाना। अब जो भी हुआ उसे दुखद स्वप्न की तरह
भूलने में ही भलाई है। सबसे ज्यादा बुरी यह बात रही कि जो लोग छिके छिकाऐ और सब तरह से सुखी
और संपन्न हैं, वह कल तक चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि लाॅकडाउन को पूरे जून तक सख्ती से बढ़ाऐ
रखना चाहिए। इसमें देश के कई प्रदेशों की सरकारें भी शामिल थी।
यह वहीं सरकारंे हैं जिन्होंने केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर शराब के ठेके खुलवा दिये। जिसका परिणाम क्या
रहा? जो सभी के सामने है। किसी के मुंह से यह नहीं निकला कि भगवान के मन्दिरों को क्यों बंद कर
दिया? उन्हें भी खोला जाए क्योंकि भक्त भगवान से प्रार्थना करेंगे तो शायद उनकी प्रार्थना
लगेगी और इस महामारी से निजात मिलने में सुगमता होगी। लेकिन इन्हें भगवान से क्या मतलब क्योंकि
मन्दिरों का चढ़ावा तो इन्हें मिलना नहीं, इन्हें तो शराबियों से मतलब है क्योंकि इनमें से
ज्यादातर उनकी बिरादरी के हैं और शराब से मिलने वाले टैक्स का लोभ भी यानी सोने में सुगन्ध।
सरकार ने आठ जून से सभी मंन्दिरों को खोलने का आदेश दिया वह सराहनीय है किंन्तु आठ जून ही
क्यों? एक जून से क्यों नहीं? जब एक जून से अन्य प्रतिष्ठानों को ढील दी जा रही है तो मन्दिरों को
क्यों लंबित किया? खैर जो भी हो। हो सकता है इसमें भी कोई पेचीदिगी होगी। जब ढाई महीने
इंतजार किया है तो एक सप्ताह और सही।

धार्मिक स्थलों की सम्पत्ति आखिर किस काम की
कुछ प्रबुद्ध लोगों का सुझाव है कि सरकार का खजाना जो लगभग खाली सा हो चुका है, उसकी भरपाई के
लिए देश के उन सभी धर्मस्थलों मन्दिर, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों तथा जैन मंदिरों की
संपत्ति को देशवासियों की सेवा में लगाना चाहिये। यदि आराध्यों की यह सम्पत्ति अनुयाईयों के निमित्त
लगे तो इसमें क्या बुरी बात है? अरबों खरबों का सोना चांदी हीरे जवाहरात और बैंक बैलेंस, यह सब
फिर कब काम आऐंगे? क्या इस सम्पत्ति को उस समय के लिए रखा हुआ है, जब इसका सदुपयोग करने वाले ही नहीं
बचेंगे?
इस शुभ कार्य में केंन्द्र और सभी प्रदेशों की सरकारों को बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिये
और मिल जुल कर इस कल्याणकारी यज्ञ को प्रारंम्भ कर देना चाहिए।

 

RELATED ARTICLES
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments