Tuesday, November 12, 2024
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आखिर इन मौतों का जिम्मेदार कौन?

रिपोर्ट:- विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। कोरोना के नाम पर हुए लाॅकडाउन की आढ़ में जो अन्याय और अत्याचार हो रहा है तथा
लोग तड़प-तड़प कर मर रहे हैं, इसका जिम्मेदार कौन है? कोरोना की महामारी कम और उसके नाम पर जो
हौवा खड़ा कर दिया है उसकी महामारी ज्यादा है।
कोरोना से तो मथुरा में उंगलियों पर गिनने लायक भी नहीं मरे और उसके कारण हो रहे
उत्पीड़न से पता नहीं कितने लोग प्रतिदिन दम तोड़ रहे हैं। महिलाएं प्रसव पीड़ा से तड़प-तड़प कर दम
तोड़ रहीं हैं और उनके बच्चे पेट में ही मर रहे हैं या जन्म लेते ही दम तोड़ रहे हैं। कुछ
लोग इलाज के अभाव में प्रतिदिन दम तोड़ रहे हैं। कुछ ही मामले समाचार पत्रों में छप रहे हैं,
वास्तविक संख्या उनसे कहीं अधिक हैं। इन मौतों की जिम्मेदारी कौन लेगा? केंन्द्र सरकार, प्रदेश सरकार
या जिला प्रशासन? क्या यह गैर इरादतन हत्या नहीं है? यह भी विचारणीय बात है।
समझ में नहीं आ रहा कि आखिर यह सब क्या हो रहा है। प्रशासन द्वारा घर-घर में खाद्य सामग्री पहुंचाने का
जो काम किया जा रहा है, वह ऊंट के मुंह में जीरा भी नहीं है। सौ में से एक प्रतिशत लोग भी इस
व्यवस्था से लाभान्वित नहीं है। जो रोजाना कमाने खाने वाले लोग हैं वह तो इस समय जीते जी मरी
जैसी हालत में हैं। खाना नहीं, दूध नहीं और तो और पीने के लिए पानी को भी तरसा दिया।
इंसान तो इंसान बेजुबान और निरीह पशु तड़प रहे हैं। गली और बाजार के कुत्तों का पेट पिचक गया
है। बंदरों की दशा भी कम दयनीय नहीं है। जिन लोगों पर मवेशी है वह भूखों मर रहे हैं,
क्योंकि पालने वालों के तो भोजन के लाले पड़ रहे हैं, इनको कहां से खिलाऐं?
इस सब के बाद भी छिके हुए पेट भरे वाले लोग मदमस्त हो रहे हैं और चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं
कि लाॅकडाउन जरूरी है, इसे और बढ़ाते जाओ। याद रखो इस कहावत को कि होनी तो होकर रहे
अनहोनी ना होय, जाको राखे साइयां मार सकै ना कोये।
आज समाचार पत्रों में पढ़ा कि अब वैज्ञानिक यह भी कह रहे हैं कि कोरोना के विषाणु हवा में भी
फैल रहे हैं और कपड़ों के ऊपर से भी इधर-उधर बिखर रहे हैं। आखिर कहां तक और कितना बचा
जाएगा? ऐसा लगता है कि बचने के चक्कर में हम और ज्यादा फंस रहे हैं। कोरोना से भी ज्यादा बड़ी
मुसीबत में।
कोरोना के जो मरीज क्वारंटीन (इलाज) किये जाते हैं, उनके साथ क्या गुजर रही है। उन्हें न सिर्फ
कुत्ते बिल्ली की तरह पटक दिया जाता है। अपितु शौचालयों में पानी नहीं, पानी भरने का डिब्बा
नहीं। खाने को कच्ची रोटी ऐसे पटक दी जाती है जैसे कुत्तों को रोटी पटकी जाती है। यह बात
वहां से निकल कर आई एक युवती ने बयां की है। यह बात आज समाचार पत्रों में भी छपी है। पता नहीं इस
त्रासदी से कब मुक्ति मिलेगी।

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