Thursday, May 15, 2025
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संस्कृति आयुर्वेद कालेज में शुरू हुई वेदों पर आधारित चिकित्सा


संस्कृति आयुर्वेद मेडिकल कालेज भारत में पहली बार कर रहा है इसकी शुरुआत

मथुरा। वैसे इस चिकित्सा को नाम दिया गया है मेडिकल एस्ट्रोलाजी, ये ऐसी प्राचीन और गुणकारी चिकित्सा पद्धति है जो आयुर्वेद में प्राचीन समय से इस्तेमाल की जाती है। केरल के कुछ वैद्य इसका आज भी इस्तेमाल करते आ रहे हैं। वेदों में उल्लेखित मंत्रों और ज्योतिष के आधार पर आयुर्वेद की यह चिकित्सा बहुत लाभकारी बताई जाती है।


संस्कृति आयुर्वेद कालेज की प्रोफेसर डा. सपना स्वामी (एमडी) का कहना है कि हमारा आयुर्वेद अथर्ववेद का अंग है, जो मनुष्य को देवताओं द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य उपहार है। आयुर्वेद के लक्ष्य हैं, पहला स्वास्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम। यानि कि जो स्वस्थ्य हैं उनके स्वास्थ्य की रक्षा। दूसरा आतुरस्य रोग प्रगमनम। यानि स्वस्थ रहने के बावजूद रोग आ गया तो उसका उपचार करने के लिए औषधियों का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन यदि सबकुछ अच्छा है फिर भी रोग आ गया तो वेदों में बोला गया है कि, पूर्वजन्म कृतं पापं व्याधिरूपेण बाध्यते, यानि रोग हमारे पूर्व जन्म के पापों से भी जनित होते हैं। आयुर्वेद में अष्टाहु संग्रह में वाग्भट्टाचार्य के अनुसार हमारे रोग तभी आसानी से ठीक होते हैं जब ग्रह अनुकूल होते हैं।


डा. सपना स्वामी बताती हैं कि चरकाचार्य ने बार-बार बुखार आने की स्थिति में विष्णु सहस्त्रनाम के पारायण को विस्तार से बताया है। इसकी चिकित्सा के लिए चरक संहिता में भी इसका उपयोग गुणकारी और लाभकारी बताया गया है। पागलपन और दौरे आने वाली बीमारियों के लिए सुश्रुत संहिता में नवग्रह होम की चिकित्सा बताई गई है। हमारे आचार्य ऋषियों ने इसके उपयोग को फलदायी बताया है। अष्टांग ह्रदय सूत्र स्थान में वाग्भट्टाचार्य ने आहार, विहार, विचार को स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण बताते हुए प्रतिकूल ग्रहों के प्रभाव को बताया ह। जो ग्रह प्रतिकूल हैं तो उन ग्रहों का अर्चन करना है। पूजा, मंत्र, जप और तप करने से रोग का निदान संभव है। इन सबको मिलाकर ही आयुर्वेद में तीन तरह की चिकित्सा बताई गई हैं-पहली युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा, दूसरी सत्वावजय चिकित्सा और तीसरी दैव व्यपाश्रय चिकित्सा।

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डा. सपना स्वामी आगे बताती हैं कि युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा के अंतर्गत जड़ी-बूटियों, काढ़े, गोली, घी, लेह्य, चूरण के द्वारा रोगों का उपचार किया जाता है। इसी प्रकार इस चिकित्सा में युक्ति के अनुसार पंचकर्म की सहायता ली जाती है। इस चिकित्सा में मरीज को आहार और विहार का भी ज्ञान देना आवश्यक हो जाता है। वहीं सत्वावजय चिकित्सा में पतंजलि ऋषि द्वारा प्रदत्त योग का प्रयोग आता है।

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आसन, ध्यान और प्राणायाम द्वारा रोगों का उपचार किया जाता है। अधिकांशतः वे कारण जो चिंता उत्पन्न करते हैं, मन और इंद्रियों को प्रभावित करते हैं और अनेक तरह के रोगों के जन्म कारण बनते हैं इस चिकित्सा द्वारा पूरी तरह से उपचारित किये जाते हैं। तीसरी चिकित्सा दैव व्यपाश्रय चिकित्सा है। यहां दैव का मतलब देवता नहीं है। इससे आशय हमारे कर्मों से है। हमारे कर्म जो अदृष्ट हैं, उनके कारण अनेक रोग हमारे अंदर आते हैं। इनकी चिकित्सा के लिए देवताओं का जप, तप यानी ध्यान करना, होम यानि अग्नि को समर्पित करना, मंत्रों के साथ हवन करना, उपवास, आदि यानी तीर्थ क्षेत्र की यात्रा करना, दान देना, मणि यानी रत्नों को धारण करना, मंत्रों का जाप करने जैसे उपचार किए जाते हैं।

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