मथुरा। कुछ दिन पहले की बात है मेरा मन हुआ कि देशभक्ति जी के घर चलूं और परिजनों के साथ बैठकर दुःख साझा करूं। दरअसल मैं उसी दिन का गया हुआ था जब उन्होंने देह त्यागी थी। उसके बाद जाना ही नहीं हो पाया। वहां बड़ी विलक्षण बातें पता चलीं।
उनकी पत्नी व पुत्र ने बताया कि जिस समय उन्होंने प्राण त्यागे उससे कुछ घंटे पूर्व देशभक्त जी रोने लगे। घर वालों ने कारण पूंछा तो वे कुछ नहीं बोले। इस पर उनकी पत्नी व्यथित होकर खुद भी रोने लगीं। पत्नी के बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि मैं पिछले दो दिन से गिर्राज जी की पूजा नहीं कर पा रहा हूं। इसी वजह से मेरा मन दुःखी है। दरअसल देशभक्त जी प्रतिदिन रचपच कर बड़े मनोयोग से अपने घर के अंदर बने मंदिर में गिर्राज जी की पूजा अर्चना किया करते थे। चूंकि पिछले एक-दो दिन से उनका यह कर्म टूट गया क्योंकि वे अस्वस्था की वजह से काफी कमजोरी महसूस कर रहे थे। हालांकि उस दिन शिवरात्रि थी और उन्होंने अमरनाथ विद्या आश्रम स्थित शिव मंदिर में जाकर शिवजी पर जलाभिषेक किया तथा घर में चल रहे हवन में शामिल होकर आहुतियां भी डालीं। यह पूरा घटनाक्रम मृत्यु से कुछ घंटे पूर्व का था।
इसके बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और सांस लेने में दिक्कत महसूस हुई। देशभक्त जी ने अपने पुत्र से कहा कि जल्दी से गिर्राज जी का प्रसाद लाओ पुत्र तुरंत प्रसाद लाया और घर में बने आटे का प्रसादी लड्डू खाते ही उनके हाथ पैर शिथिल होने लगे तथा कुछ ही देर में उनका शरीर शांत हो गया। साधारण तरीके से यानीं सरसरी तौर पर देखने से यह कोई बहुत असाधारण सी बात महसूस नहीं होगी। ऐसा लगेगा कि वे गिर्राज जी के परम भक्त थे और गिर्राज जी की भक्ति में यह सब घटनाक्रम हुआ, किंतु जब इस सब घटनाक्रम पर गहनता से विचार किया जाए तो समझ में आ जाएगा कि यह केवल असाधारण घटनाक्रम ही नहीं बल्कि भगवान और भक्त के मध्य का जो अलौकिक रिश्ता था, उसकी दिव्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण था।
अब और आगे चलो और देखो भगवान और भक्त के प्यार की ऐसी अजब गजब की लीला और उसकी महिमा क्या होती है? सुप्रसिद्ध संगीतकार कवि एवं साहित्यकार डॉ राजेंद्र कृष्ण अग्रवाल से मेरी वार्ता चल रही थी। उन्होंने बताया कि जब देशभक्त जी के पार्थिव शरीर को शमशान घाट ले जाने की तैयारी चल रही थी, तब बिहारी जी मंदिर से पुजारी वह सब कुछ लेकर आए जो बांके बिहारी ने उस दिन प्रातः धारण किया था। वस्त्र माला आदि सभी प्रसादी सामग्री देशभक्त जी के पार्थिव शरीर को धारण कराई। इसके बाद जब उन्हें ले जाने की नौबत आई तो गिर्राज जी से मंदिर के पुजारी भी भागे भागे आए और बोले कि रुको रुको और कुछ क्षण के लिए उनकी अंतिम यात्रा रुक गई।
इसके बाद गिर्राज महाराज ने उस दिन जो कुछ धारण किया, सब कुछ देशभक्त जी के पार्थिव शरीर को धारण कराया गया। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार बिहारी जी की प्रसादी धारण कराई। इस दृश्य को देखकर सभी लोग हत-प्रत से रह गए कि देखो भक्त और भगवान के बीच प्रेम की यह कैसी अनूठी लीला है? उस समय तो ऐसा लग रहा था जैसे बिहारी जी और गिर्राज जी देशभक्त जी की शवयात्रा में अदृश्य रूप से स्वयं शामिल हो रहे हों। इसीलिए भगवान को भक्त वत्सल कहा जाता है।