मथुरा। पुरानीं कहावत है कि पुलिस वालों की दोस्ती और दुश्मनीं दोनों ही ठीक नहीं। मेरी नजर में यही स्थिति अब पत्रकारों की है। जहां तक हो सके इनसे दूर रहना चाहिए। यह नस्ल अब इतनी बिगड़ चुकी है कि पत्रकार शब्द आते ही लोग भले ही ऊपरी तौर पर सम्मान दें किंतु अंदर ही अंदर घृणा करते हैं।
औरों की बात तो दूर रही मैं खुद पत्रकार होते हुए भी पत्रकार बिरादरी से नफरत करता हूं। इसका कारण सभी लोग जानते हैं। मेरे निवास पर लगे बोर्ड को देखकर जब कभी कोई बाहरी पत्रकार खुश होकर मुझसे मिलने की इच्छा रखता है तथा हमारे कर्मचारी से कहकर मुझे बुलवाता है और कहता है कि मैं भी फलां जगह का पत्रकार हूं सोचा आपसे मुलाकात कर लूं। मैं भी थोड़ा दिखावटीपन से कहता हूं कि बड़ा अच्छा किया आपने बताइए मेरे लायक क्या सेवा है? किंतु मन ही मन अपना माथा ठोक लेता हूं कि क्या मुसीबत आ गई। इसके बाद अपनी व्यस्तता का हवाला देकर तिड़ी लगाकर ऊपर घर में आ जाता हूं।
एक छोटा सा उदाहरण भी देता हूं लगभग 25-30 वर्ष पहले मथुरा रिफाइनरी में एक जनसंपर्क अधिकारी थे, अजीत पाठक बाद में वे ट्रांसफर होकर गुजरात रिफाइनरी में चले गए। कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे फोन किया कि हमारे एक परिचित पत्रकार हैं वे मथुरा आ रहे हैं, आपसे मिलेंगे यदि इन्हें कोई समस्या हो तो मदद कर देना। मैंने अनमने मन से कह दिया कि ठीक है। उसके एक-दो दिन बाद वे पत्रकार महाशय आए और पहले तो उन्होंने किसी धर्मशाला या होटल में कोई सस्ता सा कमरा दिलवाने का काम बताया, जो मैंने कर दिया। उसके बाद फिर आए और बोले कि खाना पीना बनाने के लिए राशन की दुकान से कंट्रोल रेट पर कैरोसिन दिलवा दो। वह भी मैंने एक परिचित राशन वाले से दिलवा दिया। इसके बाद दो-चार दिन बीतने के बाद फिर आ गए कि वह तो समाप्त हो गया और दिलवा दो। वह भी मुझे दिलवाना पड़ा। मतलब यह की बाजार में कुछ ज्यादा पैसे देकर मिट्टी का तेल खरीदने के, वह जंतु पिस्सू की तरह मेरा खून चूसने आ जाता। चूंकि मेरे अजीत पाठक से मधुर संबंध थे इस वजह से मैंने उसमें झाड़ नहीं लगाई तथा खून का घूंट पीकर रह गया।
जब हम छोटे-छोटे से थे तब चुनावी दिनों में जनसंघी लोग बच्चों से नारे लगवाते कि कांग्रेस की क्या पहचान लु. गुं. बे. और यही काम कांग्रेसी जनसंघियों के लिए कराते। बच्चों को मेहनताने में झंडी बिल्ले और एक-एक पैसा या अधन्ना मिल जाता। अधन्ना दो पैसों का होता था। कायदे से देखा जाए तो अब यह पदवी पत्रकारों को मिलनीं चाहिए। सभी को नहीं इक्का दुक्का ईमानदार और सच्ची पत्रकारिता करने वाले भी हैं जैसे मैं।
मुझ में और अन्य पत्रकारों में फर्क सिर्फ इतना है कि मैं हमेशा एक पैर से खड़ा रहता हूं, जैसे ही मौका मिलता है क्षण भर के लिए दूसरे पैर को जमीन पर टिकाना और काम तमाम होते ही फिर एक पैर वाली पोजीशन में आ जाना। कहने का मतलब है कि काम बड़ी सफाई से होता है यानी आम के आम और गुठलियों के दाम अर्थात हर्द लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चोखा। अंत में राज की बात और बतादूं कि प्याज के छिलकों पर मुसलमान बनना मेरी डिक्शनरी में नहीं। अब बताये कोई कि मुझसे ज्यादा चतुर और शातिर दिमाग इंसान इस पत्रकार बिरादरी में और कोई है क्या?