
विजय गुप्ता की कलम से
मथुरा। "पानी पीजै छान कै गुरु कीजै जान कै" वाली इस कहावत को पता नहीं क्यों लोग अनदेखा करते हैं? बगैर जाने बगैर पहचाने ही गुरु घंटालों को गुरु बनाकर अपना धर्म भ्रष्ट करते हैं। इन संड मुसंड लम्पटों को गुरु का दर्जा देने की मूर्खता का चलन अब तो फैशन सा बन चुका है। गुरु पूर्णिमा पर मोटी तोंद वाले ये मुसंडे सोफे पर पसरकर अपने पैरों को पुजवाएंगे। मुझे तो इससे भी ज्यादा गुस्सा उन धूर्तों पर आता है जो आंखें होते हुए भी अंधे बने रहकर इन्हें भगवान की तरह पूजते हैं।
चेहरा मोहरा और आंखों की शरारत बता देती है कि यह साधु है या शैतान किंतु ये बेवकूफ लोग जरा भी परख नहीं रखते। अब मैं अपनी ही बात बताता हूं। लगभग 40 वर्ष पुरानीं बात है। मैं आगरा के हरी पर्वत चौराहे से गुजर रहा था। वहां एक खंभे पर साइन बोर्ड लगा हुआ था। उस पर आसाराम बापू का फोटो तथा उनके प्रवचनों को सुनने के लिए किसी स्थान का नाम व समय लिखा हुआ देखा। मेरी पहली नजर में आसाराम का पूरा चरित्र यानी जन्म पत्री जहन में उतर गई। उस समय आसाराम के ऊपर कोई शक शुबह या उंगली उठाने वाली बात तक नहीं थी। किंतु पता नहीं क्यों मुझे अंदाजा लग गया कि यह तो वासना का भेड़िया है। बात आई गई हो गई किंतु काफी वर्षों के बाद जो कुछ मेरी शंका थी वह सब प्रमाणित हो गई।
अब मतलब की बात सौ की सीधी यह है कि हम लोगों को इन शैतानों से दूर रहकर जो सच्चे सन्यासी हैं उन्हें ही अपना गुरु बनाना चाहिए। गुरु दीक्षा लेने से पहले खूब अच्छी प्रकार से परख कर आगे कदम बढ़ाना ठीक है। हमारे पिताजी कहते थे कि सबसे प्रथम गुरु व पूज्य माता होती है जो जन्म के बाद से ही भले बुरे का ज्ञान कराती है। इसके बाद पिता व अन्य बड़े परिजन। फिर जिस जिस से जो शिक्षा मिलती है वह गुरु, चाहे पढ़ाई लिखाई की हो या अन्य सदमार्ग की। जब इंसान में परिपक्वता आती है तब अपना आध्यात्मिक गुरु निर्धारित करने के बारे में सोच समझ कर कदम उठाना चाहिए। देखने में आता है कि मां-बाप को तो कुछ समझते नहीं और गुरु घंटालों के लिए ऐसे मरे जाते हैं जैसे उन्हीं ने पैदा करके पाल पोसकर बड़ा किया हो। इन गुरु घंटालों का चरित्र क्या है? पहले साधु महात्मा मां, बहन, बेटियों का स्पर्श भी नहीं करते थे। बहुत हुआ तो केवल सिर पर हाथ भर रख कर आशीर्वाद देते तथा महिलाओं से माई या बेटी कहते पर अब तो माय डियर कहकर गले लगाया जाता है।
हमारे पिताजी का स्वभाव ऐसा था कि वे हर किसी साधु रूपधारी से प्रभावित नहीं होते किन्तु सभी को नमस्कार जरूर करते। रमणरेती वाले बाबा हरनाम दास जी के बारे में वे कहते थे कि इनको देखते ही मन श्रद्धानत हो उठता है और पैर छूने की इच्छा बलवती हो जाती है। बाबा हरनाम दास जी अक्सर करके हमारे घर के आगे से रिक्शे में बैठकर महावन स्थित अपने आश्रम जाते थे, तो पिताजी उन्हें देखते ही रिक्शे को रोक कर पैर छूते और आशीर्वाद लेते, उस समय में बहुत छोटा था। मैं भी उनके साथ बाबा के पैर छुआ करता था। पिताजी की एक और खास बात थी। वे रामलीला रासलीला आदि में भगवान का स्वरूप धारण करने वालों के भी पैर नहीं छूते। यह स्वभाव बचपन से मेरा भी है। मुझे भी स्वरूपों की आरती उतारना और उनके पैर छूने वाली बात बहुत अखरती है। खैर इस बात से क्या लेना देना जिसकी जो मर्जी हो सो करे।
अब मुझे बाबा हरनाम दास जी के साथ जुड़ा अपना एक प्रसंग याद आ रहा है। दरअसल मैं बचपन में बहुत उत्पाती था। बचपन क्या उत्पाती तो आज भी हूं, भले ही बूढ़ा हो गया। मेरे उत्पात से दुःखी होकर एक बार हमारी माताजी और बुआ जी मुझे रंगेश्वर मंदिर स्थित बाबा हरनाम दास जी के आश्रम ले गईं और बाबा को सारी बात बताई। बाबा ने एक पुड़िया में थोड़ी सी भभूति देकर कहा कि एक चुटकी रोजाना इस बालक को पानीं में डालकर पिला देना। यह क्रम एक-दो दिन चला किंतु मेरे उत्पात में कोई खास सुधार नहीं हुआ क्योंकि मुझे भी जल्दी सुधारने की लालसा जागृत होने लगी, तो मैंने पूरी भभूति को एक गिलास पानीं में घोलकर पी डाला। इस पर माता जी ने डांट लगाई और बुआ जी के साथ फिर से बाबा के पास ले गईं और सारा किस्सा बताया। बाबा खूब हंसे और दोबारा भभूति देकर कहा कि केवल चुटकी भर लेना एक साथ पूरी मत गटक जाना।
बात कहां से चली कहां तक आ पहुंची जहां से चला था और फिर वही पहुंच कर अपनी बात दोहराता हूं कि इन गुरु घंटालों से सावधान रहो होशियार रहो खबरदार रहो। इससे तो अच्छा यह है कि भले ही निगुरे बने रहो पर अपनी जिंदगी की रेलगाड़ी को ईमानदारी, सादगी, सच्चाई, दयालुता और परमार्थ वाली पटरी पर चलाओ। जहां तक हो सके अपने खुद के संतत्व को निखारो। सच्चा संत, सच्चा वैष्णव, सच्चा सनातनी धर्मी, सच्चा हिंदू और सच्चा भगवान का भक्त वही है जिसमें यह सब गुण हों।