मथुरा। पुरानी कहावत है कि "वृक्ष कबहु फल न भकै नदी न सींचै नीर परमारथ के काज ही साधुल धरौ शरीर" हम मनुष्य अपने फल और जल रूपी धन का उपयोग तो करते ही हैं किंतु दूसरे के धन को भी भसकने में पीछे नहीं रहते। जो इंसान दूसरों के हक को मारते हैं, वे इंसान के रूप में शैतान हैं। ऐसे लोग भले ही आज खुश होलें किंतु आगे इन्हें अपनी करनी का फल किस रूप में भुगतना पड़ेगा क्या उनकी गति होगी और क्या-क्या दुर्गति होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर हम इंसान वृक्ष और नदी के स्वभाव का आंशिक असर भी अपने जीवन में उतार लें यानी अपनी धन संपदा को अपने लिए केवल आवश्यकतानुसार उपयोग में लाऐं और बाकी को परमार्थ में लगा दें तो चौरासी लाख योनियों के बाद मिला यह जीवन सार्थक हो जाय।
परमार्थ का भी एक नशा होता है। यदि यह नशा चरम पर पहुंच जाए तो स्वयं को बर्बाद कर औरों को आबाद करने जैसी नौबत आ जाती है।जिसको यह चस्का लग गया फिर तो वह न आगा देखता है और न पीछा। बस एक ही धुन सवार हो जाती है कि कैसे दूसरों का दुख दर्द बांटू। वह तो बस उसी पिन्नक में जीता है।
कोई माने या ना माने लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि घर फूंक तमाशा देखने वाली बिरादरी के ऐसे लोगों का आगा और पीछा सब कुछ दैवीय शक्तियां देखती हैं। वे उसके लिए कहीं कोई बड़ी परेशानी नहीं आने देतीं। सब कुछ ऑटोमेटिक रूप से यानी स्वतः ही संचालित होता है। यह सब जो मैं लिख रहा हूं वह कोरी गप शप नहीं बल्कि कसौटी पर परखा हुआ यथार्थ है। अगर अपनी जिंदगी की बगिया महकवानी है तो वृक्ष और नदी बन जाओ और फिर ऐसे सुख के सागर में गोते लगाओ जिसका न कोई ओर है न छोर।