मथुरा। बचपन से हम बहुओं की मुंह दिखाई तो सुनते आ रहे हैं किन्तु मुर्दों की मुंह दिखाई भले ही न सुनी हो किंतु इसका चलन बढ़ता जा रहा है। बल्कि यौं कहा जाए कि यह तो अब फैशन बन गया है। बेचारे मुर्दों को बहुओं की तरह मुंह दिखाई में मिलता तो कुछ है नहीं ऊपर से उनकी मिट्टी पलीत और होती है।
शायद मेरी बात अभी किसी की समझ में नहीं आ रही होगी कि माजरा क्या है? बात यह है कि मान लो घर में किसी की मौत हो गई, तो होता क्या है कि कभी-कभी लाश को एक दो या और अधिक दिनों तक सिर्फ इसलिए पटके रखा जाता है कि बेटी आ जाय या बहन आ जाय उसका मुंह देख ले अथवा और कोई घर का आ जाय वह भी उसका मुंह देख ले। भले ही लाश से दुर्गंध उठने लगे, उसकी इन्हें कोई चिंता नहीं। ज्यादा करेंगे तो धनाड्य लोग लाश रखने वाला फ्रीजर मंगवा लेंगे किंतु मिट्टी की मिट्टी पलीत करने से बाज नहीं आते।
मुझे यह सब देखकर बड़ी कोफ्त होती है। ऐसा लगता है कि शायद बहन बेटी या और कोई खास परिजन के आते ही मुर्दा आंखें खोलकर उठ बैठेगा और गले लगाकर रहेगा कि अब मैं चैन से मरूंगा। भले ही जीते जी बीमारी की हालत में उसकी कोई खैर खबर तक नहीं ली हो किंतु मरने के बाद तो ढकोसले बाजी दिखाना जरूरी है। कहते हैं कि जब तक मुर्दे का अंतिम संस्कार नहीं हो जाता तब तक उसकी आत्मा अपने शरीर के इर्द-गिर्द भटकती रहती है। जिस दिन अंत्येष्टि होती है उसी दिन वाली तिथि को ही मरने वाला दिन मानकर श्राद्ध वगैरा किए जाते हैं।
मैंने ऐसे ऐसे लोग देखे हैं जिनके बुजुर्गों की मौत एकादशी, अमावस्या, पूर्णमासी, रामनवमी, जन्माष्टमी या शिवरात्रि जैसे बड़े पर्वों पर हुई किंतु उन नालायक औलादों ने सिर्फ इसलिए अंतिम संस्कार कई दिनों तक टाले रखा कि पूरा घर इकट्ठा होकर अंतिम दर्शन कर ले। अगर दाग देने वाला कोई न हो तब तो बात समझ में भी आती है किंतु दाग देने वाला भी मौजूद और सब घर परिवार रिश्तेदार मौजूद किंतु इक्का दुक्का लोगों की वजह से मृतक के साथ इतना बड़ा अन्याय बहुत शर्मनाक है। मृतक ही क्यों परिवारीजन, रिश्तेदार तथा अन्य शुभ चिंतक भी इसी चक्कर में लटके रहते हैं।
इस मामले में चतुर्वेदी समाज में बड़ी अच्छी रिवाज है। वे जल्दी से जल्दी अंतिम संस्कार करते हैं। कभी-कभी तो कुछ घंटे में ही समाज के लोग एकत्र होकर शमशान की ओर तेज रफ्तार से दौड़ पड़ते हैं। विपरीत परिस्थितियों में एक्का दुक्का प्रतिवाद हो जाए वह अलग बात है। मेरा विचार यह है कि इस मामले में गंभीरता से सोचना चाहिये तथा मृतक के शरीर की दुर्गति करने की बजाय जल्दी से जल्दी उसकी अंत्येष्टि करके अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। जो लोग अपने पूर्वजों की सदगति की अनदेखी कर दुर्गति का कार्य करते हैं, वे पूर्वजों का आशीर्वाद पाने के बजाय श्राप के भागी बनते हैं। मृत शरीर की शीघ्र अंत्येष्टि ही क्या हर प्रकार से हम लोगों को अपने पितरों की आत्म शांति के लिए वास्तविक कर्म करने चाहिए न कि ढकोसले बाजी की नौटंकी यानीं दिखावे बाजी।
हां एक बात और कहनी है वह यह कि कुछ लोगों में एक और रोग लग गया है। वह यह कि 12 ब्राह्मण जिस दिन होते हैं, उसी दिन मासी, तिमासी, छमाही, वर्षी और चौबर्षी तक करके मृतक से ऐसे पिंड छुड़ा लेते हैं जैसे वह उनका कुछ था ही नहीं। यह बहुत गलत बात है। एक तरह से बला टालने जैसी हरकत। एक और तो मरने के समय ऐसी रोमन पिट्टन और दिखावटीपन कि पूंछो मत और फिर बाद में उसका माल मत्ता तो हजम कर जाते हैं तथा मासी से लेकर चौवर्षी तक सब समाप्त। होना यह चाहिए कि हर मौके पर उन्हें मान और सम्मान के साथ याद करके यथाशक्ति उनके निमित्त जो बन पड़े करके उनका कर्ज उतारना चाहिए बल्कि अपना फर्ज भी निभाना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि कल को हमें भी पितृ श्रेणीं में आना है। जैसा हम बोयेंगे वैसा ही काटेंगे।
मुर्दों की मुंह दिखाई का चलन जोरों पर
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