मथुरा। पित्र पक्ष समापन की ओर है। पित्रों के चमत्कार का एक किस्सा जो मेरे साथ घटित हुआ, बताने का मन है। बात लगभग 20-25 वर्ष पुरानीं है। हमारे घर के सामने एक पीपल का पेड़ था। उस पर मैंने मिट्टी का एक पात्र रस्सी से बांधकर लटका रखा था। उसके पीछे मेरा मंतव्य यह था कि पक्षी पानीं पियेंगे और शायद पीपल के वृक्ष पर विराजने वाली पित्र आत्माएं भी अपनी प्यास बुझा लेंगी।
मैं प्रतिदिन स्नान के बाद मिट्टी के उस बर्तन को धोकर भर दिया करता था। एक दिन क्या हुआ कि बंदर ने उस बर्तन पर झपट्टा मार दिया और पात्र टेढ़ा होकर पानीं फैल गया। सुबह का समय था। उस वक्त मैं बगैर स्नान किए हुए था। मैंने सोचा कि इसे अभी धोकर भर दूं, किंतु क्षण भर में यह विचार भी आया कि बगैर स्नान किए पित्रों के निमित्त जल अर्पित करना उचित नहीं है। उसी क्षण दूसरा विचार आया कि पता नहीं पीपल के इस पेड़ पर पित्र आत्माएं हैं भी या नहीं? और यदि हैं भी तो बगैर स्नान किए हुए ही इस मिट्टी के बर्तन को भर दूंगा तो ही कौन सी आफत आ जाएगी। इसी सुविचार और कुविचार बाजी के मध्य एक शैतानी बात मन में उपजी।
मैंने मन ही मन सोचा कि चलो मैं आज बगैर स्नान किये ही इस पात्र को भर देता हूं और यदि इस पेड़ पर पित्र आत्माएं निवास करती हैं, तो मुझे अभी इसी क्षण अपनी उपस्थिति और शक्ति का आभास कराकर दिखाएं, तो मैं पित्र आत्माओं का लोहा मान लूंगा। यानी एक प्रकार से मैंने पित्र आत्माओं को चैलेंज कर दिया। इसके बाद मैंने तुरंत उस बर्तन को उतार कर अपने नलकूप पर धोया और आधा सा भरकर रस्सी के फंदे में फंसाया तथा फिर तांबे की लुटिया से लवालव भर दिया। जैसे ही मैंने लगभग एक फुट ऊंचे चबूतरे पर चढ़कर उसे भरा और दो कदम पीछे हटकर जमीन पर पैर रखा, तुरंत मेरी पीठ पर तड़ाक की आवाज के साथ एक जोरदार थप्पड़ जैसा पड़ा। मैं हक्का-बक्का सा रह गया और फिर पीछे मुड़कर देखा तो कोई भी नहीं। किसी के न होने से तो मैं और भी भौंचक्का हो उठा कि यह क्या मामला है कोई है भी नहीं और झापड़ बड़े जोर का, आखिर मामला क्या है? कोई भूत प्रेत तो नहीं जिसने मुझे यह सबक सिखाया है।
भूत प्रेत की संभावना होते ही मेरे छक्के छूटने लगे और एक प्रकार से मैं हॉपलेस सा हो गया। उसी क्षण मेरी नजर सफेद रंग की एक टाटा सूमो पर पड़ी जो आर्य समाज की ओर से बड़ी तेज रफ्तार से आई और बंगाली घाट के चौराहे की तरफ भाग रही थी। वह टाटा सूमो लगभग श्रीजी गैस सर्विस तक जा पहुंची थी। तब सारा मामला मेरी समझ में आया। दरअसल बात यह थी कि ड्राइवर की सीट के पास बाहर की ओर लगा हुआ शीशा मेरी पीठ पर टकराया था। कल्पना करो कि यदि मैं एक कदम और पीछे हट गया होता तो क्या होता? फिर तो बोनट से टकराते हुए टाटा सूमो के नींचे आकर मरना या अधमरा होना सुनिश्चित था।
मतलब यह कि पित्र देवों ने क्षण भर में अपना चमत्कार भी दिखा डाला और बाल बांका तक होने नहीं दिया। ये पित्रगण बड़े दयालु और अपने वंशजों की कदम-कदम पर रक्षा करने वाले होते हैं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मैं देख चुका हूं। मेरे ऊपर तो इनकी ऐसी कृपा रही है कि हर संकट में रक्षा करके कवच का काम किया। हम लोगों को इन्हें हमेशा याद रखना चाहिए। आज हम लोग इन्हीं की बदौलत इस धरा पर हैं। यदि हम अपने पित्रों की उपेक्षा करेंगे तो तरह-तरह की मुसीबतें हमारे सामने बनीं रहेंगी।
हमारे पिताजी कहते थे कि ये पित्र श्रद्धा और भावनाओं के भूखे होते हैं। वे कहते थे कि इनका श्राद्ध यथाशक्ति अवश्य करना चाहिए। किसी सात्विक ब्राह्मण को भोजन कराने के अलावा गऊ ग्रास भी जरूरी होता है। यदि कोई नदी निकट में हो तो उसके निमित्त भोजन का अंश उसमें भी विसर्जित किया जाना चाहिए। इसके अलावा कुत्ता कौवा आदि का भी प्रावधान है। वे कहते थे कि यदि कुछ भी न हो पाए तो उनका ध्यान करके स्वयं भोजन करना चाहिए।
पिताजी का यह भी कहना था कि यदि यह भी न हो पाए तो दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके उनकी याद में दो आंसू ही टपकाने मात्र से वे प्रसन्न हो जाते हैं। दक्षिण दिशा से उनका मतलब यह था कि पित्र लोक दक्षिण दिशा में माना जाता है।यदि किसी भी तिथि कोई कुछ न करे तो कम से कम अमावस्या वाले दिन तो यथाशक्ति जो कुछ बन पड़े वह तो अवश्य करना ही चाहिए।ओम श्री पित्रेश्वराय नमः।