मथुरा। बोर्ड के परीक्षा फल आने के बाद ज्यादा अंक पाकर इतराने इठलाने का बुखार चरम पर है। समाचार पत्रों में अधिक अंक पाने वाले परीक्षार्थी उंगलियां से वी का चिन्ह बनाकर या उनके माता-पिता उन्हें मिठाई खिलाते हुए खूब फोटो छपवा रहे हैं। इस दौड़ में स्कूल वाले तो और भी आगे हैं क्योंकि उन्हें अपने स्कूली व्यवसाय को चमका कर ज्यादा धंधा जो करना है। यह सिलसिला नया नहीं यह ढर्रा तो पहले से चला आ रहा है। यह सब कुछ देखकर मुझे बड़ी कोफ्त होती है। लोग सोचेंगे कि होनहार विद्यार्थियों की खुशी देखकर जलन क्यों? शायद इसलिए कि यह खुद अनपढ़ है, इसीलिए पढ़ने वालों से चिढ़ रहा है। हो सकता है उनकी बात सही हो किंतु मेरी सोच लीक से हटकर यानी कुछ अलग है।
मेरा मानना है कि शिक्षा उसे कहते हैं, जो जीवन को सफल बनाए यानी हम लोग अच्छे नागरिक बने और सद्कर्म के द्वारा ज्यादा से ज्यादा परमार्थी कार्य करें। झूठ नहीं बोले सच्चाई पर डटे रहें तथा हर प्रकार के गलत कार्यों से दूरी बनाए रखते हुए ईमानदारी के साथ सदाचारी जीवन जियें। किताब वाली पढ़ाई में अधिक नंबर हासिल करके ज्यादा इतराना तो मुझे बड़ा बुरा लगता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर जरा गौर करके देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। जरा सोचो कि छोटे-छोटे बच्चों के ऊपर ढेरों किताब कॉपियों का गठ्ठा लाद दिया जाता है। पहले तो कच्ची उम्र में स्कूल भेजना और फिर ऊपर से ट्यूशन की बीमारी। मेरा दाखिला 6 वर्ष की उम्र में कक्षा 1 में हुआ। अब तो कक्षा एक से पहले भी कई क्लासें होती हैं और दो ढाई साल के बच्चों को ही स्कूल भेजना शुरू करा दिया जाता है। जब परीक्षा के दिन आते हैं तब तो विद्यार्थियों को तैयारी के नाम पर ऐसे जुटा दिया जाता है कि पूंछो मत। बस किताब कापियों का घोल बनाकर उसकी घुट्टी पिलाने की कसर बाकी रह जाती है। दिन और रात बस रटंत और पढ़न्त इसके अलावा और कुछ नहीं।
मेरा मानना तो यह है भले ही कम अंक मिले हों तो भी कोई हर्ज नहीं पर पूरे वर्ष साधारण तरीके से पढ़ना श्रेयकर है। मैं तो यह कहता हूं की टॉपर या प्रथम श्रेणी में पास होने के से ही क्या हम महान बन जाएंगे? भले ही हम साधारण नंबरों से पास हों तो कौन सी आफत का पहाड़ टूट पड़ेगा? ज्यादा से ज्यादा नंबरों से पास होने की यह होड़ा होड़ी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। मुझे तो यह पसंद है कि भले ही हमारी किताब वाली पढ़ाई कम हो या कम नंबर मिलें किंतु हमें ऐसी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जिससे हमारा जीवन सुधरे, आचार विचार संस्कार अच्छे हों, परोपकारी जिंदगी जीकर अपना और अपने माता-पिता का नाम रोशन करें। सच्ची और अच्छी शिक्षा तो मेरी नजर में यह है। एक बात और जो मेरे मन की है वह यह कि थोड़ी बहुत काम चलाऊ शिक्षा उच्च शिक्षा से ज्यादा बेहतर है। जितनी ज्यादा ऊंचाई वाले विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय हैं इनमें विद्यार्थी बनते कम और बिगड़ते ज्यादा हैं। यह मैं नहीं कह रहा यह तो समय-समय पर अखबारों में छपने वाली खबरें कह रही हैं। माता-पिताओं को अपनीं संतानों को नजर के सामने रखना चाहिए ना कि दूर दराज के शहरों या विदेशों में भेज कर उन्हें बिगाड़ना चाहिए। ज्यादा ऊंची तनख्वाह या ज्यादा ऊंचा पद ही सब कुछ नहीं होता। सादा जीवन उच्च विचार की जिंदगी से ऊंचा कुछ नहीं। चली बात पर एक प्रसंग मुझे याद आ गया। एक बार मैं अपनी ससुराल महाराष्ट्र में गया हुआ था। वहां मेरे साले के एक जिगरी दोस्त जो गुजराती थे, मिले वे तथा उनकी पत्नी बड़े सरल स्वभाव के संस्कारी थे। उनके दो बच्चे भी उन्हीं के पदचिन्हों वाले थे। उन दोनों ने मुझसे कहा कि हम अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई से ज्यादा उनके संस्कारों पर ध्यान देते हैं। उनकी यह बात मुझे बहुत ज्यादा अच्छी लगी। भले ही इस बात को 40 साल से भी ज्यादा हो गए पर मेरे मन में आज भी रची बसी हुई है।
अब अंत में कहना चाहता हूं कि मैं कोई पढ़ाई लिखाई विरोधी नहीं हूं। हम 10 भाई बहन हैं और मेरे अलावा सभी पढ़े लिखे हैं। हमारी सबसे बड़ी बहन गीता देवी जो गीता जयंती पर जन्मी थीं ने तो लगभग 6 दशक पूर्व बी. ए. तक की पढ़ाई पढ़ी थी। उस जमाने में तो पढ़ाई का तरीका ज्ञानवर्धक होता था आज के जमाने से बिल्कुल भिन्न। ऐसा लग रहा है कि मूर्ख आदमी विद्वानों के बीच में बैठकर बहस कर रहा है। ठीक उसी प्रकार जैसे वजन ढोने वाला मजदूर इंजीनियरों के बीच तर्क वितर्क करने में मगन हो। सौ की सीधी बात "पढ़-पढ़ कै पत्थर भये और लिख लिख कै कमजोर, चढ़ जा बेटा छत्त पै लैके पतंग और डोर" इति शिक्षा पुराण।