मथुरा। हाल ही में यमुना एक्सप्रेस वे पर हुआ हृदय विदारक हादसा जिसमें ढेरों जानें गईं और अनगिनत घायल हो गए। ऐसी दुःखद घटनाएं कहीं न कहीं रोजाना ही हो रही हैं। कोई छोटी कोई बड़ी, किसी में इक्का दुक्का और किसी में दर्जनों जानें जा रही हैं।
इस सबके पीछे मेरी सोच अलग है। मेरा मानना है कि लोग ठीक उसी प्रकार अपनीं जान देने को उतारू हैं, जैसे कीट पतंगे आग में अपनी आहुति देते हैं। पहली बात तो यह है कि इतने भयंकर कोहरे में गाड़ियां क्यों चलाई गईं? गाड़ियां चलाने वाले और उसमें बैठकर यात्रा करने वालों की आखें क्या पीछे लगी हुईं थीं?
दूसरी बात यह कि इतने ज्यादा वाहन सड़कों पर फर्राटे भरते हैं कि सड़क पार करना भी दुश्वार हो जाता है। मेरी समझ में नहीं आता कि लोग इतनीं अधिक यात्राएं क्यों करते हैं? मेरा मानना यह है कि जब सातों फूट जाएं तब ही यात्रा करनी चाहिए। मतलब बहुत ज्यादा जरूरी हो तभी। मैं तो देखता हूं कि जितनी यात्राएं हो रही हैं उनमें शायद 10-20% ही जरूरी होती हैं बाकी सब गैर जरूरी। कोई निचावला होकर बैठना नहीं चाहता। अरे अपने काम धंधों को देखो और शाम को घर आकर बाल बच्चों व बुजुर्गों के साथ शांति से समय बिताओ।
मैं पूछता हूं कि जब कोरोना महामारी चली तब कैसे अपने अपने दड़बों में डुबके बैठे रहते थे? किसी को बुरा लगे या भला मेरा मानना तो यह है कि इंसानों ने कीट पतंगों को अपना गुरु मानते हुए उनके पद चिन्हों पर चलने का उसूल बना लिया है। पर ऐसों में मैं खुद नहीं हूं क्योंकि मैं तो कूप मंडूप बनकर अपने नलकूप तक ही सीमित रहता हूं। जब नहीं निठती है तभी घर से बाहर निकलता हूं। बाकी जिसकी मर्जी हो सो करो। सौ की सीधी बात यह है कि जहां तक हो सके यात्राओं से बचो और सुरक्षित जिंदगी जियो।