Monday, April 29, 2024
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अरे लाला तू जे कौन की जन्मपत्री लै आयौ_है

अरेलालातूजेकौनकीजन्मपत्रीलैआयौ_है

 मथुरा। बात लगभग 30 वर्ष पुरानीं है। उन दिनों हमारे पिताजी स्व. लाला नवल किशोर जी की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब थी चल रही थी। उसी दौरान यमुना किनारे आगरा होटल के निकट दंडी वाले घाट पर एक विद्वान ज्योतिषी छोटी-सी कोठरी में आकर रहने लगे थे। अल्प समय में ही उनकी ज्योतिष की ख्याति होने लगी आसपास ही नहीं दूर-दराज तक के लोग अपनी व अपने परिजनों की जन्मपत्री दिखाने हेतु आने लगे।
 मैंने पिता जी से कहा कि आप अपनी जन्मपत्री दे दो तो मैं भी उसे दिखाकर पूंछू कि आप की अस्वस्थता के ये दिन कब तक चलेंगे? तथा कोई उपाय वगैरा हो सकता है क्या? चूंकि हमारे पिताजी ज्योतिष में बहुत ज्यादा विश्वास रखते थे और हल्की-फुल्की सी जानकारी स्वयं भी रखते। पंचांग देखना भी उन्हें अच्छी प्रकार आता था। पिताजी ने अपनी जन्मपत्री मुझे दे दी और उसे लेकर मैं उक्त वृद्ध ज्योतिषी के पास गया।
 जब मैंने अपने पिताजी की जन्मपत्री उन्हें दी तथा कहा कि पंडित जी इसे देख कर बताओ कि खराब स्वास्थ्य के दिन कब तक चलेंगे? और कोई उपाय वगैरा हो सकता है तो उसे भी बताओ। पंडित जी ने अपनी आंखों पर चश्मा चढ़ाया तथा सरसरी नजर से देखते ही वह एकदम भौचक्के से रह गए और मुझसे बोले कि "अरे लाला तू जे कौन की जन्मपत्री लै आयौ है"। मैंने कहा कि पंडित जी आपको पहले ही बता दिया था कि यह मेरे पिताजी की जन्मपत्री है और उनकी तबीयत खराब चल रही है।
 वे बोले कि यह तो मुझे पता है कि तुम्हारे पिताजी की है किंतु मेरा मतलब यह है कि ये व्यक्ति कोई मामूली इंसान नहीं है। ये तो कोई योग भ्रष्ट दिव्यात्मा है। अपनी किसी गलती या भूल चूक के कारण इन्होंने इंसान के रूप में जन्म लिया है। इसके बाद उन्होंने कुछ देर तक जन्मपत्री को विस्तार से देखा तथा शुरू से अंत तक का वह सब घटनाक्रम एकदम सटीक बता दिया जो उनके जन्म से लेकर उस समय तक घटित हो रहा था। बहुत ज्यादा तो मुझे याद नहीं किंतु उन्होंने सबसे ज्यादा जोर देकर एक बात यह कही कि यह अत्यंत स्वाभिमानी व अपनी मेहनत से कमाने खाने व गृहस्थी का पालन करने वाले सीधे सच्चे इंसान हैं। दूसरी बात उन्होंने यह कही कि तुम्हारे पिताजी हमेशा सादगी, सच्चाई, ईमानदारी और किसी का नुकसान न करने वाले व्यक्ति हैं। ये उस व्यक्ति का भी बुरा नहीं सोचते हैं जो भले ही इनका बुरा करे।
 उक्त ज्योतिषी की हर बात हमारे पिताजी के बारे में बड़ी सटीक बैठ रही थी। उनकी बातें सुनकर मैं भी बड़ा विस्मित सा हो गया क्योंकि इतनी श्रेष्ठ ज्योतिष वाला व्यक्ति मैंने कोई देखा ही नहीं था। जो बातें उक्त ज्योतिषी ने मुझे बताईं थीं लगभग ऐसी ही बातें हमारी दादी बुद्धोदेवी को पिताजी के जन्म के पश्चात उस जमाने के जाने-माने ज्योतिषियों ने भी बताई थीं जिनमें एक ते सुजान पंडित जी। सुजान पंडित जी का बड़ा नाम था उनके इस नाम को उनके यशस्वी पुत्र पंडित रविदत्त जी मधुबनियां ने भी कायम रखा।
 हमारे पिताजी अत्यंत शांत और सरल स्वभाव के तो थे ही साथ ही उनकी ईश्वर में बड़ी जबरदस्त आस्था थी तथा भजन, पूजन व ईश्वर भक्ति के कवित्त बनाना उनकी खास रूचि थी। वे झूठ, छल, कपट आदि से हमेशा दूर रहे यहां तक कि अपनी जमीन जायदादों के मुकद्दमों में भी सीधी सादी चाल से चलते। वकीलों के कहने पर भी मुकद्दमे बाजी में झूठी व मनगढ़ंत बातें नहीं लिखवाते। इस बात के बारे में आज भी हमारे पुराने जमाने के वकील स्व. बाबू जगदीश प्रसाद गर्ग, मंडी रामदास वालों के सुपुत्र माधव बाबू बताते रहते हैं। उन दिनों माधव बाबू निर्विकार गुप्ता (जो बाद में जिला जज बने) हीरालाल एवं महिपाल शोरावाला आदि जगदीश बाबू के जूनियरों में थे।
 हमारे पिताजी ने अपने जीवन में जो सिद्धांत बनाए उन्हें एक खास यह भी था कि किसी का घोंसला न उजड़े क्योंकि हमारे बाबा स्व. श्री पुरुषोत्तम दास जी पिताजी के बचपन में यानी तीन चार वर्ष की उम्र में गुजर गए थे, ताऊजी श्री दामोदरदास व हर प्रसाद जी की छत्र छाया में मां बुद्धो देवी ने उनका लालन-पालन किया। क्योंकि उस समय हमारी पैतृक जमीन जायदाद काफी थी और उन दिनों किराएदारी बड़ी कमजोर थी मकान मालिकी ताकतवर थी यानी कि कानून ऐसा था कि मकान मालिक जब चाहे किराएदार से अपनी जगह खाली करा लेता था। 
 पिताजी ने भले ही नुकसान उठाए किंतु किसी भी किराएदार से नाजायज रूप से जगह खाली नहीं कराई। हां उनसे जरूर खाली कराई जो न तो किराया देते और धींगपने से जमे रहकर उल्टे पिताजी के ऊपर ही रौब गालिब करने की कोशिश करते। ऐसी जगह में यह स्थान भी है जहां हम रहते हैं तथा पिताजी का लगाया हुआ "नवल नलकूप" चल रहा है। पहले इस जगह में साढ़े तीन भाई नाम से चतुर्वेदियों की पंडागीरी वाली कंपनी चलती थी तथा इस हवेली नुमा मकान को धर्मशाला के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। पूर्वजों ने इस जगह को धर्मशाला के निमित्त ही बनवाया था। बाद में पिताजी ने हाईकोर्ट तक से मुकद्दमा जीत कर उस जमाने के जाने-माने रंगदारों से बगैर लड़ाई झगड़े के अपनी भलमन साहत से खाली करवाया व खुद आकर गृहस्थी के साथ रहने लगे। यहां आने के बाद सबसे पहले मेरा जन्म इसी मकान में हुआ। इस मकान का पूरा मुकद्दमा बाबू जगदीश प्रसाद जी ने बड़े मनोयोग से लड़ा। वे हमारे पिताजी को बहुत मानते थे।
 अपने पिताजी के बारे में घोंसला न उजाड़ने वाली एक रोचक घटना बताना चाहता हूं। चूंकि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ व वैद्य कृष्ण दास शर्मा आदि क्रांतिकारियों के पक्ष में गवाही देने के कारण गोविंद गंज स्थित हमारी पैत्रिक आढ़त के सभी लाइसेंस तत्कालीन कोतवाल पृथ्वी सिंह ने निरस्त कराकर आढ़त के व्यापार को तहस-नहस करा दिया था और घर गृहस्थी चलाने तक के लाले पढ़ने के साथ हमारी बड़ी बहन स्व. श्रीमती गीता देवी की शादी ऊपर से सिर पर आ गई। अतः पिताजी ने लालागंज वाली अपनी लंबी चौड़ी जायदाद को बेचने का मन बनाया व उसमें मौजूद सबसे बड़े किराएदार श्रीनाथ दास जी मैदा वालों व उनके छोटे भाई जमुनादास जी से उनके हिस्से को बेचने की बात की।
 श्रीनाथ दास जी श्री ग्रुप के सर्वे सर्वा सुदीप अग्रवाल उर्फ पप्पन जी के ताऊ जी थे। उन्होंने पिताजी से कहा कि भाई साहब आप क्यों सभी के झंझट में पढ़ते हो? लाला गंज की पूरी की पूरी जायदाद हमें ही बेच दो जितने पैसे सभी से मिलें उससे और ज्यादा ले लो इससे आपको भी फायदा रहेगा। पिताजी ने श्रीनाथ दास जी से दो टूक शब्दों में मना कर दिया तथा कहा कि आपको मैं पूरी जायदाद बेच दूंगा तथा थोड़े दिनों में ही आप सभी से खाली करवा लेंगे और लगभग सभी के घोंसले उजड़ जाएंगे, जो मैं कतई नहीं चाहूंगा। उनके इस जवाब से श्रीनाथ दास जी निरुत्तर हो गए और उन्होंने सिर्फ अपने हिस्से वाली जगह ही खरीदी। इसके बाद पिताजी को जिस जिस ने जो कुछ दिया यानी किसी ने पांच सौ, सात सौ, हजार, दो हजार सभी की खुशी से जो मिला स्वीकार किया किंतु किसी का घोंसला नहीं उजड़ने दिया सभी किरायेदारों ने उन्हें जीभर के दुआएं दीं।
 पिताजी की उदारता का एक और किस्सा जो अविस्मरणींय सा लगता है, बताता हूं। हमारे मकान में जहां गाय-भैंसों आदि के पीने हेतु पानीं की टंकी बनी हुई है। एक दुकान थी डॉक्टरी की उसे डॉक्टर कुंदन लाल बुधिराजा चलाते थे। दुकान का नाम था कैलाश चिकित्सालय। डॉक्टर साहब वृद्धावस्था के कारण दुकान चलाने में असमर्थ थे, फिर भी उन्होंने दुकान खाली नहीं की तथा बंद पड़ी रही।
 पिताजी ने अदालती कार्यवाही करके दुकान खाली कराकर दखल ले लिया। महत्वपूर्ण बात यह थी कि उस समय डॉक्टर साहब की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पिताजी ने कानूनन दुकान का कब्जा लेकर भी डॉक्टर साहब को पांच हजार रुपए स्वेच्छा से दिए। यह बात लगभग पैंतालीस साल पुरानीं है, उस समय पांच हजार रुपए की कीमत बहुत थी। पांच हजार रुपए पाकर डॉक्टर साहब बेहद खुश हो गए।
 हमारे पिताजी का सिद्धांत हमेशा यह रहा कि उनकी वजह से किसी का दिल न दुखे। वे कहते थे कि "निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय मरी खाल की स्वांस सौं लोह भसम हुई जाय"। पुराने जमाने में लोहे को तपाने व पिघलाने वाली सिगड़ी (अंगीठी) की आग को तेज करने के लिए धौंकनी का प्रयोग किया जाता था। ये धौंकनी मरे हुए जानवर की खाल से बनाई जाती थी, उनमें लगे हैंडल को ऊंचा करने पर हवा भर जाती थी तथा दबाने पर वेग के साथ हवा निकलती और अंगीठी धधक उठती व लोहा भी पिघल कर भस्म होने लगता था।
 पिताजी व हमारे दिवंगत पुत्र विवेक का स्वभाव बहुत कुछ मिलता जुलता था। विवेक व पिताजी के रहन-सहन आचार विचार सब कुछ सामान थे उसकी जन्मपत्री को देखकर भी ज्योतिषी योग भ्रष्ट बताते थे। उसके अंदर तो कुछ ऐसी दुर्लभ विलक्षणतायें भी विद्यमान थीं कि अक्सर उसके मुंह से निकली बात एकदम सच हो जाती। पितृ पक्ष की इस पावन बेला में दोनों पुण्यात्माओं को मेरा नमन।
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