विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। हमारे भाई अक्सर शेयरों की खरीद बेच शुरू से ही करते आए हैं। इसके अलावा जब भी मौका लगता है वे जहां तहां लाभ की जमीन खरीद लेते हैं तथा दो पैसा फायदा होने पर बेच देते हैं। ये मुझसे भी कई बार कह चुके हैं कि तू भी एक प्लॉट लेकर डाल दे, आगे चलकर कीमतें बढ़ें तब बेच देना। चार पैसे का फायदा हो जाएगा तथा वक्त बेवक्त जरूरत पड़ने पर पैसे काम आएंगे। उनकी यह सोच मेरे हित के लिए थी क्योंकि वे जानते हैं कि यह तो फूंका पजारा आदमी है। पैसे से तो इसका बैर है किंतु मौके बेमौके जरूरत सभी को पड़ जाती है।
मैं उनकी बातों को सुनीं अनसुनीं कर देता और कह देता कि मुझे जरूरत नहीं है। बचपन से ही मुझे शेयर बाजी और जमीनों की खरीदा बेची बहुत बुरी लगती है। मेरा मानना है कि शेयर बाजी सट्टेबाजी का ही दूसरा रूप है। इसके अलावा अपनीं जरूरत के लिए जमीन खरीदी जाय तब तो ठीक है किंतु केवल इस उद्देश्य से कि खाली जमीन, घर या फ्लैट ले कर पटक दो और बाद में जब कीमतें बढ़ें तब बेच दो, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। यह तो उनके लिए उचित हो सकता है जो केवल जमीनी कारोबारी हैं। हो सकता है मेरी सोच गलत हो किंतु मैं अपने विचारों पर अब भी दृढ़ हूं। इन सब बातों से धन लिप्सा बढ़ती है जो, सुखमय जिंदगी के लिए घातक है।
खैर अपने को क्या? अपना तो मुख्य उद्देश्य जो है वह यही है कि सिर्फ इतनीं लालसा रहे कि अपना और अपने परिवार का भरण पोषण होता रहे तथा थोड़ा-बहुत यानी यथासंभव धर्म-कर्म अर्थात परमार्थ भी चलता रहे। धर्म कर्म और परमार्थ के नाम पर ढौंग पाखंड जो आजकल चलन में हैं, से तो मुझे बड़ी चिढ़ होती है। जहां तक चिढ़ वाली बात है तो मुझे फिजूलखर्ची और दिखावट से तो इतनी नफरत है कि देख देखकर तन बदन में आग सी लग जाती है किंतु ऐसा लगता है कि लोगों की जिंदगी सिर्फ दिखावटीपन और ढौंग पाखंड तक ही सिमट कर रह गई है। सादगी तो ऐसे छूमंतर हो चुकी है जैसे गधे के सिर से सींग।
अब मैं मुख्य बात पर आता हूं लगभग चार साढ़े चार दशक पुरानीं बात है घर में पिताजी व तीन चार भाई बैठे हुए थे। बातचीत चल पड़ी गोविंद नगर हाउसिंग सोसायटी में प्लॉट खरीदने की। बीच में रुक कर एक बात बतादूं कि हमारे पिताजी गोविंद नगर हाउसिंग सोसायटी के संस्थापक सदस्यों में थे किंतु उन्होंने कभी भी सोसाइटी से एक भी प्लॉट लेना तो दूर कोशिश भी नहीं की, अब आगे बढ़ता हूं। मैं अपने भाइयों की बातें सुन रहा था तभी मुझे मजाक सूझी मैंने कहा कि एक जमीन का कोई सस्ता और अच्छा सा टुकड़ा मुझे भी चाहिए किंतु शर्त यह है कि, हो मेरे मन माफिक।
मेरे मुंह से यह बात जैसे ही निकली तुरंत सभी चौंके कि आज ये क्या कह रहा है? ये तो हमेशा जमीन खरीदने के नाम से ही उंचाटी मारता था और अब खुद अपने मुंह से कह रहा है कि एक टुकड़ा जमीन का मुझे भी चाहिए। उस समय पिताजी कुछ खा रहे थे। मेरे कहते ही उनका मुंह चलना बंद हो गया और हाथ का कौर बजाय मुंह की और जाने के नींचे आ गया तथा टकटकी लगाकर मुझे देखने लगे। यह सब नजारा मैं कनखियों से बड़े ध्यान पूर्वक देख रहा था।
सभी एक सुर से बोले कि कैसी जमीन चाहिए तुझे? मैंने कहा कि ऐसी जमीन चाहिए जो मेरे साथ ऊपर भी चली जाय। इतना सुनते ही सब हंस पड़े। उस समय तो बात हंसी में चली गई लेकिन बात हंसी की नहीं है, बात तो एकदम सही है। अगर हमें अपने जीवन की जमीन तैयार करनी है तो धन, दौलत, जमीन जायदाद की आपाधापी से दूर रहकर लोक और परलोक सुधारने की दिशा में बढ़ना चाहिए। यह बताने की जरूरत नहीं है कि लोक परलोक कैसे सुधरेगा? यह सभी जानते हैं पर मानते नहीं। मत मानो "मानोगे तो आप को माई को न बाप को" यह कहावत हमारी माताजी से हमने बचपन में सुनीं है।
जहां तक मेरी अपनीं बात है, भगवान की कृपा से पूर्वजों के द्वारा बनाकर छोड़ा गया रहने को सुंदर मकान है। उन्हीं के द्वारा ही दिया गया सुंदर व्यवसाय है और ऊपर से जमाने वालों पर धौंस धपड़ जमाने के लिए अखबार है इसके अलावा और क्या चाहिए? चाह नहीं चिंता नहीं मनवा बेपरवाह, जिनको कुछ नहीं चाहिए वे हैं शहन शाह।