Friday, May 3, 2024
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पढ़ पढ़ कै पत्थर भये और लिख लिख कै कमजोर चढ़ जा बेटा छत्त पै लैकै पतंग और डोर

मथुरा। “पढ़ पढ़ कै पत्थर भये और लिख लिख कै कमजोर चढ़ जा बेटा छत्त पै लैकै पतंग और डोर” यह कहावत मैंने बचपन से सुन रखी है। सुन क्या रखी है बल्कि मेरे जीवन में तो यह ऐसी सटीक बैठी है कि मानो कहावत नहीं बल्कि मंत्र है।
     लोग कहेंगे कि क्या फालतू की बकवास लगा रखी है, पर मेरे लिए तो वे बकवासी है, जो मेरी सोलह आने सही बात को बकवास समझते हैं। अगर कोई नहीं माने तो मत मानो पर मेरे जीवन की कसौटी पर तो यह सिद्धांत एकदम खरा उतरा है। पूंंछो कैसे? वह ऐसे कि बचपन से ही मैं पतंग उड़ाने का बड़ा शौकीन रहा हूं। पढ़ाई लिखाई में तो मेरा दीदा कतई नहीं लगता था। कभी-कभी तो पट्टी बुद्दका और बस्ता लेकर जाता तो स्कूल की कहकर और इधर उधर बैठकर उड़ती पतंगों को निहारता हुआ कटी पतंग को लूटने में लग जाता।
     पतंगों की बात लिखने के बीच विजय बहादुर सिंह से बात हो रहीं थीं, उन्होंने ऊपर लिखी कहावत में चार चांद और लगवा दिए। आगे एक लाइन और बढ़वा कर जैसे सोने में सुगंध कर दी। वह लाइन यह है कि “दनादन पेच लड़ावै पानी की नई प्यास और रोटीऊ ना भावै” विजय बहादुर नंबरी घाघ तो हैं ही पर कभी-कभी मार्के की बात भी बताते रहते हैं। घाघ शब्द मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि भुक्तभोगी हूं। उनका घाघपन मेरे द्वारा लिखे लेखों पर किए गए व्यंगात्मक कमेंटों में कभी-कभी परिलक्षित हो जाता है। कुल मिलाकर आदमी हैं बढ़िया। हिंदुत्व, गौरक्षा, और सनातन धर्म की ध्वजा लेकर चलने वालों में अग्रणीं नजर आते हैं। हो सकता है अमूल की इस टिक्की से सुई चुभाना कम कर दें। कम तो कर सकते हैं पर पूरी तरह बंद नहीं करेंगे क्योंकि ये बेचारे आदत से मजबूर हैं।
     पतंग पुराण को पढ़कर लोग यह न समझें कि मैं कोई बहुत बड़ा पतंग बाज हूं। यानी बड़ी-बड़ी पतंगें उड़ा कर लंबे-लंबे पेच लड़ाने वाला होऊं, ऐसा कुछ भी नहीं। पर हां छोटी व मध्यम साइज की पतंगों को उड़ाना व थोड़ी सी दूरी पर पेच लड़ाना मुझे रुचिकर लगता था। यह शौक आज भी है किंतु समयाभाव के कारण मन मार कर रह जाता हूं। हमारे दिवंगत पुत्र विवेक को भी मेरे द्वारा पतंग उड़ाना बहुत भाता था। जब मैं आठ दस साल का था तब एक बार पतंग लूटने के चक्कर में छत से गिरकर कंधा तुड़वाकर 10-12 दिन अस्पताल की हवा भी खा चुका हूं।
     अब आता हूं असली मुद्दे पर कि “चढ़जा बेटा छत्त पै लैकै पतंग और डोर” वाली बात जीवन में कैसे सार्थक होती है। अब मैं अपना ही उदाहरण लेकर चलता हूं। बचपन से ही मेरा मन पढ़ाई लिखाई से जी चुराने वाला रहा है। पतंगों को उड़ते हुए देखना, लूटना और थोड़ा बड़े होकर उड़ाना खूब रुचता था। इसके अलावा अंटा गोली व गिल्ली डंडा खेलना भी बहुत भाता था। शुरू से ही मैं पढ़ाई लिखाई में फिसड्डी तथा उत्पात मचाने में अव्वल रहा। इसीलिए हमारी माताजी व बुआजी तमाम साधु महात्माओं व स्यानो सवानों के पास लेकर जातीं और तरह-तरह से झाड़-फूंक होती व बाबाओं की भभूति जीव पर डाली और माथे पर लगाई जाती किंतु नतीजा सिफर। इसके साथ-साथ स्कूल पर स्कूल बदले गए। साधारण स्कूलों से बात नहीं बनी तो मोंटेसरी स्कूलों में परीक्षण हुआ। वे भी कई बदले किंतु रिजल्ट वही जीरो का जीरो। खैर हार झक मारकर कभी फेल और कभी पास होते होते आठवीं क्लास तक पहुंचा। उसमें भी गणित, अंग्रेजी सहित तीन विषयों में फेल होने के कारण पास होने वाला सर्टिफिकेट न मिलना सुनिश्चित था। ऐसी स्थिति में क्लास टीचर को 25 रुपए की रिश्वत देकर पास होने का सर्टिफिकेट जैसे तैसे बनवाया और आगे की पढ़ाई से नमस्ते करके पिताजी के साथ कारोबार में जुड़ गया। इसके बाद रेल के पुल पर पैदल का रास्ता बनवाने के चक्कर में पत्रकारों की सोहबत में पड़कर खुद पत्रकार बन बैठा।
     आगे की स्थिति सभी के सामने है भगवान की कृपा और पूर्वजों के आशीर्वाद से मेरे अंडर में एम.ए, डबल एम.ए. पीएचडी किए हुए तथा वकालत पढ़े हुए और बड़े स्कूल के प्रोफेसर तक, एक नहीं दो नहीं दर्जन भर से अधिक लड़के काम कर चुके हैं और इक्का-दुक्का तो अब भी कर रहे हैं। इस अहंकार पूर्ण सेंटेंस के लिए भगवान से माफी मांगते हुए अब भी अपनी जिद पर अड़ा हुआ हूं कि अधिक पढ़ाई लिखाई के चक्कर में मत पड़ो और पतंग डोर लेकर छत पर चढ़ जाओ। पढ़ाई लिखाई सिर्फ इतनी जो साधारण सी जिंदगी जीने के लिए काम चलाऊ हो। कहते हैं “लोमड़ी को अंगूर नहीं मिले तो खट्टे हैं” हो सकता है यह कहावत मेरे ऊपर सटीक बैठ रही हो किंतु मैं अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनता, यह मेरा स्वभाव है। मैं कोई गलत बात तो कह नहीं रहा बल्कि अपना उदाहरण देकर सिद्ध भी तो कर रहा हूं।
     मैं अपना ही क्या एक और उदाहरण के. कामराज का दे रहा हूं जो नेहरू जी के समय कांग्रेस अध्यक्ष थे, वे तो बिल्कुल अनपढ़ थे (जैसा मैंने सुना है) वे मद्रासी थे तथा घर के अंदर ज्यादातर बदन पर केवल एक लुंगी लपेटे रहते और संसद में कुर्ता व लुंगी पहन कर आते। उनकी बनाई योजना पूरे देश में लागू हुई उसका नाम था “कामराज योजना” दबंग इतने कि उनकी बात को काटने की हिम्मत स्वयं नेहरू जी भी नहीं जुटा पाते थे।
     अब मैं एक बात और कहना चाहता हूं जो सबसे ज्यादा जरूरी है। वह यह कि आजकल विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में क्या पढ़ाई होती है? उसे बताने की जरूरत नहीं। प्रतिदिन समाचार पत्रों में छपने वाली खबरों से पता चल जाता है। पढ़ाई यानी शिक्षा उसे कहते हैं जिससे जीवन सार्थक हो। भले ही संपूर्ण जीवन निकृष्ट हो जाए पर ऊंची ऊंची यानी तथाकथित शिक्षा का प्रमाण पत्र बड़ा जरूरी होता है। क्योंकि वह बड़ी-बड़ी नौकरी मिलने में जो सहायक होता है। इसके अलावा शेखी बघारने व अदावाजी दिखाने का भी सुअवसर, भले ही पूरा जीवन धिक्कार मय हो।
     अंत में फिर अपनीं बात पर आता हूं कि सुखमय जिंदगी जीने के लिए किताब कॉपी वाली (अब तो कंप्यूटर की पढ़ाई) से कहीं अधिक अच्छी पढ़ाई संस्कार व परमार्थ वाली होती है। अगर हमें इस जीवन को सार्थक बनाना है तो धनोपार्जन वाली डिडॖया  को छोड़ इस सच्ची और अच्छी पढ़ाई की ओर अग्रसर होना चाहिए। इससे न सिर्फ यह लोक बल्कि परलोक भी सुधरेगा तथा हमारी अगली पीढ़ी भी इसी दिशा में अग्रसर होकर सुख शांति का जीवन व्यतीत करेगी।

विजय गुप्ता की कलम से

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