Saturday, April 27, 2024
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जब दूरदर्शन पर मैंने गाना गाया

   मथुरा। बात उन दिनों की है जब मैं लगभग चौदह पंद्रह वर्ष की उम्र का था। इस घटना को बीते लगभग पचपन वर्ष हो गये होंगे। उन दिनों दूरदर्शन का चलन प्रचलन दूर दूर तक नहीं था केवल आविष्कार हो चुका था। हम सुनते थे कि विदेश में एक ऐसा रेडियो चला है जिसमें लोग चलते फिरते दिखाई देते हैं।
     उस दिनों मैं कलकत्ता में अपनी बड़ी बहन गीता देवी के पास रहता था। एक दिन वह बोलीं कि केशव तू घर में बैठे-बैठे बोर हो रहा है जा बिरला म्यूजियम चला जा वहां देखने लायक बड़ी अच्छी अच्छी चीजें हैं किट्टी को भी ले जा। केशव मेरा घरेलू नाम है तथा किट्टी यानी कविता जो मेरी भांजी है उस समय शायद तीन चार साल की होगी।
     जीजी के कहने के बाद मैं अपनी भांजी किट्टी को लेकर ट्राम से बिरला म्यूजियम जा पहुंचा। घर से बिरला म्यूजियम पहुंचने में बमुश्किल आधा घन्टा भी नहीं लगा होगा क्योंकि बालीगंज में ही जीजी का घर था और बालीगंज में ही बिरला म्यूजियम। दोनों में फासला ज्यादा था किन्तु ट्राम से पहुंचने में कितनी देर लगती है।
     मैंने चार आने की टिकट खरीदी और अन्दर चला गया। अन्दर जाकर देखा कि अन्य आश्चर्यजनक वस्तुओं के अलावा सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक या चमत्कारिक चीज यह थी कि वह रेडियो भी था जिसकी चर्चा हम बचपन से सुनते आए थे। प्रथम तल पर एक छोटा सा स्टूडियो था तथा पूरे म्यूजियम में चलते फिरते लोग देखने वाले रेडियो लगे थे जिन्हें अब हम टीवी कहते हैं और उससे पहले टेलीविजन का उच्चारण किया जाता था। उस स्टूडियो पर दीवाल की जगह शीशा लगा हुआ था ताकि अन्दर का सारा नजारा बाहर से भी दिखाई देता रहे।
     वहां काफी भीड़ लगी हुई थी स्टूडियो में सिर्फ कर्मचारियों की चहल पहल चल रही थी वह म्यूजियम में लगे टीवी सेटों पर दिखाई दे रही थी। मध्य में एक खाली कुर्सी भी रखी हुई थी। मुझे चलते फिरते अन्य लोगों की भांति अपनी शक्ल को भी चमकाने की ललक लगी। मैंने अपनी भांजी को तो गेट के बाहर बैठा दिया तथा खुद अन्दर घुस गया। वहां पर कर्मचारियों से कहा कि मुझे भी अपनी सूरत रेडियो में दिखानीं है। कर्मचारी बोले कि कुछ गाना गा सकते हो? इस पर मैंने कहा कि गा दूंगा।
     इसके बाद उन्होंने कहा कि अच्छा इस कुर्सी पर बैठ जाओ और गाना गाओ उनके कहते ही मैं जा बैठा कुर्सी पर। मुझे गाना वाना तो आता नहीं था किन्तु एक कविता जो बचपन में अमर उजाला में इतवार के दिन ‘बाल वाटिका’ स्तंभ में पढ़ी थी उसकी कुछ लाइनें याद थीं। उसी कविता की पंक्तियों को मैंने अपनी अनूठी आवाज में गा दिया। आवाज मेरी कैसी सुरीली है यह तो सभी जानते हैं। जो लाइने मैंने गाईं वे यह थीं।

“टन टन टन टन टेलीफोन
हेलो बोल रहे तुम कौन
यह तो मामा की आवाज
पेड़े लाना गिन कर चार
और साथ में हलुआ सोन
टन टन टन टन टेलीफोन”

इस गाने को गाकर मैं चुप हो गया। इस पर कर्मचारियों ने कहा कि बस इतना सा ही गाना और कुछ नहीं। मैंने कहा कि मुझे सिर्फ यही आता है।इसके बाद में बाहर निकल आया।
     बाहर निकलते ही सारी भीड़ मेरे आस पास सिमट आई और मुझे ऐसे घूर घूर कर देखने लगे जैसे मैं कोई बहुत बड़ा फिल्म स्टार हूं। मैं जिधर भी जाता भीड़ मेरे पीछे पीछे चलती और बांग्ला में कहने लगे कि “ऐई तो आछे” यानीं कि यही तो है। कोई कहता कि “ऐई छेले आछे” यानीं कि यही लड़का है। कोई कहता कि “ऐई गाच्चे” यानीं कि यही गा रहा था। इस सब तमाशे को देखकर मैं बड़ा अचम्भित हुआ और गौरवान्वित भी होने लगा तथा कुछ कुछ शर्माहट सी भी महसूस हुई।
     इसके बाद मैंने वहां और कुछ नहीं देखा तथा अपनी भांजी को गोद में उठाया और म्यूजियम से बाहर निकल लिया। मेरे बाहर निकलते ही भीड़ भी छिटक गई। घर आकर मैंने जीजी जीजाजी तथा मुझे घर में पढ़ाने हेतु आने वाले एक मास्टर साहब को भी अपनी शेखी बघारते हुए यह सारा किस्सा सुनाया। उस दिन तो मैं फूला नहीं समा रहा था फिर मैंने मथुरा में अपने घर वालों को भी पत्र लिखकर सारा किस्सा बताया क्योंकि उन दिनों मोबाइल तो थे नहीं और टेलीफोन भी जै बिल्ले लोगों तक ही सीमित था तथा बुक करा कर बात करनी पड़ती थी वह भी सिर्फ तीन मिनट और कई कई घंटो तक इंतजार भी करना पड़ता था टेलीफोन के पास बैठकर सो अलग और रुपए भी बहुत खर्च हो जाते थे।
     इस लेख को लिखने का मेरा खास मतलब दूसरा है जिसे अन्त में बता रहा हूं। वह यह है कि हम लोग सिनेमाओं में काम करने वालों को ऐसे मानते हैं जैसे कोई वो खुदा हैं। बस जिनको पर्दे पर या टी.वी. में देख लिया तो फिर उनके प्रति दीवानगी हो गई। सिनेमाओं में काम करने वाले कुछ लम्पट तो ऐसे हैं जिनकी शकल सूरत तक से मुझे घिन सी होती है। कहते हैं कि फिल्म स्टार यानीं कि सितारे। जैसे यही ध्रुव तारे की टक्कर के सितारे हों। उदाहरण मेरा ही ले लें कैसी फटे वांस जैसी आवाज में गाने की चार लाइनें गा दीं और उन लोगों ने टीवी सेटों में मुझे देख लिया तो लग गये पीछे। न अकल न शकल और ना ही किसी बात का कोई सऊर सलीका बस एक झटके में कूदकर धम्म से जा बैठे कुर्सी पर और गा दिया बेसुरी आवाज में गाना।
     मुझे तो सिनेमाओं में काम करने वालों के लिए कलाकार कहने से भी चिढ़ सी होती है। सच में पूंछा जाय तो कलाकार तो सर्कस में होते थे (अब तो सर्कस भी लोप हो गये) सर्कस में काम करने वालों की कला या करतब देखते ही ताली बजाने को हाथ खुद-ब-खुद  मचलने लगते थे। सड़क पर अपनी बाजीगरी दिखाने वाले भी मेरी नजर में कलाकार हैं। देखा जाय तो सिनेमा की इस दुनियां में जितनी ऊपरी चमक-दमक है उससे कहीं ज्यादा सीवर लाइन जैसी गंदगी भरी पड़ी है इस बात को कौन नहीं जानता?
     पुराने जमाने में तो सिनेमा में काम करने को लड़कियां ही नहीं मिलतीं थीं तथा लड़कियों का रौल लड़के ही निभाते थे। लोग अपनी बहन बेटियों को सिनेमा में काम करने को इसलिए नहीं भेजते थे क्योंकि उनका मानना था कि यह कार्य कोठे पर भेजने जैसा है। यह परंपरा तो आज भी राम लीलाओं में भी देखने को मिलती है। ऐसा भी नहीं है कि सिनेमा में काम करने वाले सभी लम्पट और लम्पटनियां हैं। कुछ अच्छे और सच्चे कलाकार भी रहे हैं लेकिन उन्हें कौन पूंछता है। ऐसों की संख्या तो शायद नगण्य है।
     मैं तो यहां तक मानता हूं कि सिनेमा में अपनी इज्जत आबरू की परवाह न करने वाली लड़कियां वैश्या से भी बदतर होती है क्योंकि वैश्या पर्दे के पीछे अपनी इज्जत बेचती है और यह पर्दे के ऊपर यानी कि चौड़े में। बल्कि यौं कहा जाय कि बेचती नहीं लुटाती हैं तो गलत नहीं होगा।
     यह बात एक बार मैंने बीस पच्चीस साल पहले वृंदावन में एक पत्रकार वार्ता के दौरान हेमा मालिनी से भी कही और उनकी प्रतिक्रिया पूंछी तो उन्होंने मुंह बनाते हुए यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि मैं अपनीं महिला साथी कलाकारों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगी। वैसे हेमा मालिनी औरों को देखते हुए फिर भी श्रेष्ठ हैं। बात शुरू हुई मुझसे और समापन हो रहा है हेमा मालिनी से। ज्यादा बोलने की तरह ज्यादा लिखने की भी मेरी आदत है इसीलिए लेख लम्बा हो गया है अब इसे यहीं विराम देता हूं।

विजय गुप्ता की कलम से

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