Saturday, May 4, 2024
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क्रोधी और प्रतिशोधी होने के बाबजूद भी मैं संत कैसे हुआ?

विजय गुप्ता की कलम से
    
     मथुरा। कुछ लोग मुझे आमने सामने या फेसबुक पर संत की उपमा देकर क्षण भर के लिए भले ही प्रफुल्लित कर देते हों किंतु सच्चाई यह है कि संतत्व से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। गुस्सा मेरे अंदर कूट-कूट कर भरी हुई है और प्रतिशोध की भावना भी जब कभी जागती है तो फिर मैं आगा पीछा सोचे बगैर बदला लिए नहीं मानता। भले ही मुझे इसके लिए कुम्भकरण की तरह छः महीने तक की जगार ही क्यों न करनीं पड़े। कहते हैं कि कुम्भकरण छः महीने सोता और छः महीने जागता था। मैं चैन से तभी सोता हूं जब बदला लेकर हिसाब-किताब चुकता न कर लूं यह स्वभाव मेरा बचपन से ही है।
     सच्चे संत वे होते हैं जो हर परिस्थिति में सौम्य और शांत बने रहें क्रोध और प्रतिशोध तो उनके निकट तक नहीं फटकना चाहिए बल्कि अपना बुरा करने वाले का भी भला करना चाहिए। बिच्छू और साधु की कहानी आपने सुनी भी होगी। मैं समझता हूं अब आप लोगों की मेरे बारे में जो गलतफहमी है वह दूर हो चुकी होगी। यदि थोड़ी बहुत बाकी रह भी गई होगी तो फिर मैं अपने क्रोध और प्रतिशोध की एक बानगी आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे पढ़कर आपकी गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए।
     बात उस समय की है जब मैं किशोरावस्था पार करके युवावस्था में चल रहा था। घटना गली पीरपंच की है। उन दिनों में प्रतिदिन अपने फूफाजी के लिए खाने का टिफिन देने के लिए उनके घर गली पीरपंच में जाया करता था। असल में हमारी बुआजी स्वर्ग सिधार चुकी थीं। उनकी कोई संतान नहीं थी अतः खाना प्रतिदिन हमारे घर से ही जाया करता था। हम सभी भाई-बहन बुआजी के ही पाले हुए हैं क्योंकि हमारी माताजी जल्दी स्वर्ग सिधार गईं थीं।
     मैं साइकिल से जा रहा था। वर्षा तेजी से हो रही थी एक हाथ से छतरी पकड़ रखी थी और दूसरे हाथ से साइकिल का हैंडल। टिफिन का थैला आगे लटका हुआ था। जैसे ही मैंने महावर वैश्य स्कूल का मुख्य द्वार पार किया कि मेरी छतरी पर ढेर सारा गाय का गोबर आकर गिरा। मैंने साइकिल रोकी और ऊपर की ओर देखा तो किशोर उम्र के दो लड़के बड़ी जोर जोर से अठ्ठाहस करके हंस रहे थे।
     यह सब देखकर तो मैं चौमासे के खिसियाने बंदरों जैसी स्थिति से भी कहीं अधिक यानी कि विकराल स्वरूप में आ गया। क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी तथा दोनों एक और एक मिलकर ग्यारह हो गये। मैंने साइकिल एक साइड में खड़ी की और छतरी को एक ओर रखकर उनके घर में ऊपर चढ़ गया। मुझे ऊपर आता देख वे लड़के कमरों में भागे। वे आगे आगे और मैं पीछे पीछे। अपने को घिरता हुआ देख वे एक कमरे में रखे लकड़ी के तख्त के नींचे घुस गये। इसी दौरान उनकी मां आ गई और चिल्लाने लगी कि “अरे का भयौ, अरे का भयौ”। मैंने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और खुद भी तख्त के नीचे घुस कर उन दोनों को पकड़ कर दो चार थप्पड़ और घूंसे जड़ दिये तथा फिर बाहर निकल आया।
     उनकी मां बार-बार वही एक रटना लगाये जा रही थी “अरे का भयौ, अरे का भयौ कुछ बताय तौ सही बात का है” मैं उससे यह कह कर भाग आया कि अपने कुंवर कन्हैयान सै पूंछ का भयौ”। इसके बाद वह पीछे से पता नहीं क्या-क्या भुनभुनाती रही। उस दिन मेरा भाग्य अच्छा था जो वहां कोई मुझसे भी जबर बड़ा आदमी नहीं मिला वर्ना वह मेरी भी धूर दच्छिना कर डालता। अच्छी बात एक और यह हुई कि उस घटना के बाद वे दोनों बालक मुझसे कभी कुछ नहीं बोले तथा कुछ वर्षों बाद जब वे बड़े हुए हमेशा मुझसे चाचाजी चाचाजी कहकर संबोधित करते तथा नमस्कार करके अच्छी तरह बोलते। वे तो बड़े होकर सुधर गए किंतु मैं जितना बड़ा होता गया उतना ही बिगड़ता गया और आज तक नहीं सुधर पाया।        

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