Sunday, June 1, 2025
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ये धन कुबेर सांप बनकर लहराते फिरेंगे

 मथुरा। पुराने जमाने में लोग मटकों में भरकर सोना चांदी आदि जमीन में गाढ़ देते थे। कभी-कभी ऐसा भी होता कि वे उनका उपयोग नहीं कर पाते और मर जाते। भले ही वे मर जाते किंतु उनकी आत्मा उन्हीं मटकों के इर्द-गिर्द भटकती रहती। अक्सर ऐसे भी मामले सुनने में आते रहे हैं कि वे सांप बनकर उन मटकों की रखवाली करते हैं। जमाना बदल चुका है। अब मटकों या अन्य बर्तनों में सोने चांदी को जमीन में नहीं गाढ़ा जाता। अब तो बैंकों में रुपए जमा रहते हैं या सोने चांदी को घरों में रखा जाता है। रकम को जमीन जायदाद आदि में खपाया जाता है। व्यापार या ब्याज पर उठाने का भी विकल्प होता है।
 अब मैं सीधे मतलब की बात पर आता हूं। मेरा मानना यह है कि धन दौलत जमीन जायदाद आदि में अत्यधिक आसक्ति वालों को सर्प योनि मिलती है और ये धन पिपासु सांप बनाकर अपने आलीशान घरों, प्रतिष्ठानों या बैंकों के इर्द-गिर्द लहराते फिरते हैं और मन ही मन कहते हैं कि यह हमारी कोठी है, यही हमारा बैंक है जिसमें हमारी अपार राशि जमा है। अपने प्रतिष्ठानों की भी फेरी लगाते रहते हैं। 
 होता क्या है कि जब उनकी औलाद या अन्य परिजन इन्हें देखते हैं तो शोर मचाते हैं कि "सांप आ गया सांप आ गया" और सब लोग चारों तरफ से घेराबंदी करके या तो मार डालते हैं या पड़कर कहीं बहुत दूर जंगल या नदी आदि में पटकवा के देते हैं। इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं क्योंकि उन बेचारों को क्या पता कि यह हमारा बाप है, बाबा है या अन्य परिजन है। तब ये धन कुबेर अपना माथा पीटते हैं कि देखो इनके लिए ही तमाम पाप पुण्य करके धन संपत्ति को एकत्र किया और ये ही हमें मार रहे हैं। तब इन्हें अपने कुकर्मों का बोध होता है। ऐसे लोगों की सबसे ज्यादा निकृष्ट कौम वह है जो बेईमानीं यानी तरह-तरह की धोखाधड़ी से धन संचय करके मौज मारते हैं और बाद में मर जाते हैं। जब ईश्वरीय इंसाफ होगा तब उनकी जो दुर्गति होगी उसकी कल्पना की जा सकती है। भगवान हम सभी को ऐसी सद्बुद्धि दें कि "मैं भी भूखा न रहूं और साधु भी भूखा ना जाय" बस इससे ज्यादा मत देना वर्ना हमारी भी मति मारी जाएगी और फिर सांप बनाकर लहराने की नौबत पक्की।

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