
विजय गुप्ता की कलम से
मथुरा। कई दिन पहले में एक उठवानी में गया वहां पर दावत का भी इंतजाम देखकर मैं भौंचक्का सा रह गया। पहले तो उठावनियों में लोग शोक मग्न होकर बैठते और एक घंटा पूरा होते ही उठकर चल देते।
धीरे-धीरे स्थिति बदलती गई। अब तो कुछ उठावनियों में खूब भाषण बाजी होती है तथा शोक संवेदना के नाम पर कागजों की रद्दी एकत्र होकर उसे पढ़कर सुनाया जाता है। शुरुआत में प्लास्टिक वाली पानीं की छोटी-छोटी बोतल परोसी जाती फिर चाय की चुस्की और कहीं-कहीं जलपान की स्टालें धन कुबेरों के यहां दिखने लगीं और अब तो दावत की भी शुरुआत देखी।
मुझे लगता है कि आगे चलकर कहीं मुर्दघटा पर ही पहले जलपान की शुरुआत होकर बाद में दावतों की बारी न आ जाए। समझ में नहीं आ रहा है कि कुछ धनाढ्यों द्वारा की जाने वाली ऐसी गलत बातें होड़ा होड़ी के चक्कर में मध्यम व निर्धन लोगों तक में फैल कर परंपरा का रूप धारण न कर लें।
मथुरा में तो एक वर्ग में तेरहवीं तक रोजाना तरह-तरह के माल टाल बाजार से आते हैं। आज क्या आएगा, कल क्या मंगाएंगे इस सब का मीनो शमशान घाट पर ही तय होने लगता है। इस वर्ग में तो खान-पान का बोलबाला हमेशा से ही चला आ रहा है। गंदगी से इनका ऐसा नाता है कि मुसलमानी बस्तियां भी मात खा जाएं।
गांव देहात में तो आज भी घरों में एक-दो दिन तक चूल्हे नहीं जलते तथा पड़ौसी रोटी लाकर देते हैं और शोक में डूबे परिजनों को आग्रह कर कर के खिलाते हैं। वहीं दूसरी ओर अनाप-शनाप कमाई वाले कुछ लोग तेरहवीं पर दावत का ऐसा जबरदस्त प्रदर्शन करते हैं कि पूंछो मत। उनकी शान इसी में बढ़ती है। भले ही किसी भूखे को दो रोटी न खिलाते हों और प्यासे को कभी एक लोटा पानी न पिलाया हो।
मेरी सोच इस सबसे अलग हटकर है। मेरा मानना है कि मृतक के नाम पर सात्विक ब्राह्मणों को भोजन भले ही बारह न हों एक ही हो तो भी कोई बात नहीं और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण गऊ ग्रास होता है। अगर निकट में कोई नदी हो तो उसमें भी कुछ भोजन विसर्जित करना चाहिए। इसके अलावा कुत्ता कौवा आदि पशु पक्षियों का हिस्सा बस इतना ही पर्याप्त है। बाकी और सब डोंग पाखंड व प्रदर्शन सब बेकार।