Monday, May 13, 2024
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कांवड़ यात्रा के अनजाने रहस्य: जानिए कब ओर किसने की कावड़ यात्रा की शुरुआत

मथुरा। महाशिव रात्रि पर्व पर शिव भक्त बड़ी संख्या में कावड़ से गंगाजल लाकर अपने आराध्य भगवान शिव पर जलाभिषेक करते हैं। इसके बाद ही वह दूसरा कोई कार्य करते हैं। कावड़ यात्रा का भगवान शिव की आराधना में विशेष महत्व है। इस कावड़ यात्रा को लेकर कई सवाल लोगों के मन में आते हंै कि कावड़ यात्रा कब शुरु हुई, किसने शुरु की, इसका उद्देश्य क्या है। देश के किन क्षेत्रों में कावड़ यात्रा होती है। आइए जानते हंै इन सवालो के जवाब-

भगवान परशुराम ने की कांवड़ यात्रा

ऐसा मानना है कि सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर “पुरा महादेव”, में जो उत्तर प्रदेश प्रांत के बागपत के पास मौजूद है, गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाकर उस पुरातन शिवलिंग पर जलाभिषेक, किया था। आज भी उसी परंपरा का अनुपालन करते हुए श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर, जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर लाखों लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं।


उत्तर भारत में ऐसे शुरु हुई कावड़ यात्रा की परंपरा

उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िये कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है। इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थों के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर भगवान का जलाभिषेक करते हैं।

झारखण्ड में ऐसे शुरु हुई कांवड़ की परंपरा

बैजनाथधाम (झारखंड) रावणेश्वर लिंग के रूप में स्थापित है। श्रावण मास तथा भाद्रपद मास में लाखों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा करके इनका जलाभिषेक करते हैं। इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं। दरभंगा आदि क्षेत्रों के यात्री कांवड़ के माध्यम से भगवान का अभिषेक बसंत पंचमी पर करते हैं। सर्वप्रथम उत्तर भारत से गए हुए मारवाड़ी परंपरा के लोगों ने इस क्षेत्र में यह परंपरा प्रारंभ की थी।

कांवड़ यात्रा के माध्यम से यहां होता है अभिषेक

आगरा जिले के पास बटेश्वर में, जिन्हें ब्रह्मलालजी महाराज के नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिवजी का शिवलिंग रूप के साथ-साथ पार्वती, गणेश का मूर्ति रूप भी है। श्रावण मास में कासगंज से गंगाजी का जल भरकर लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान शिव का कांवड़ यात्रा के माध्यम से अभिषेक करते हैं। यहां पर 101 मंदिर स्थापित हैं।


एक प्राचीन कथा है कि 2 मित्र राजाओं ने संकल्प किया कि हमारे पुत्र अथवा कन्या होने पर दोनों का विवाह करेंगे। परंतु दोनों के यहां पुत्री संतानें हुईं। एक राजा ने ये बात सबसे छिपा ली और विदाई का समय आने पर उस कन्या ने, जिसके पिता ने उसकी बात छुपाई थी, अपने मन में संकल्प किया कि वह यह विवाह नहीं करेगी और अपने प्राण त्याग देगी। उसने यमुना नदी में छलांग लगा दी। जल के बीच में उसे भगवान शिव के दर्शन हुए और उसकी समर्पण की भावना को देखकर भगवान ने उसे वरदान मांगने को कहा। तब उसने कहा कि मुझे कन्या से लड़का बना दीजिए तो मेरे पिता की इज्जत बच जाएगी। इसके लिए भगवान ने उसे निर्देश दिया कि तुम इस नदी के किनारे मंदिर का निर्माण करना। यह मंदिर उसी समय से मौजूद है। यहां पर कांवड़ यात्रा के बाद जल चढ़ाने पर अथवा मान्यता करके जल चढ़ाने पर पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहां एक-दो किलो से लेकर 500-700 किलोग्राम तक के घंटे टंगे हुए हैं।
यहां 15 दिन चलती कांवड़ यात्रा

उज्जयनी में महाकाल को जल चढ़ाने से रोग निवृत्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है। लाखों यात्री इस समय में भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। यहां की विशेषता यह है कि हजारों की संख्या में संन्यासियों के माध्यम से टोली बनाकर कावड़ यात्री चलते हैं। ये यात्रा लगभग 15 दिन चलती है। वैसे तो भगवान शिव का अभिषेक सारे भारतवर्ष के शिव मंदिरों में होता है, परंतु श्रावण मास में कांवड़ के माध्यम से जल-अर्पण करने से अत्याधिक पुण्य प्राप्त होता है।

गंगाजी की धाराओं से लिया जाता है कांवड़ के लिए जल

हमारे शास्त्रों सहित भारत के समस्त हिंदुओं का विश्वास है कि कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की धारा में से ही लिया जाता है। कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। हरिद्वार से जल लेकर दिल्ली, पंजाब आदि प्रांतों में करोड़ों यात्री जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा लगभग पूरे श्रावण मास से लेकर शिवरात्रि तक चलती है।

कांवड़ भगवान शिव की आराधना का रुप

कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है। इस यात्रा के जरिए जो शिव की आराधना कर लेता है, वह धन्य हो जाता है। कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार। अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे वह कांवरिया।

कांवड़ का अर्थ जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम

च्कस्य आवर: कावर: ‘अर्थात परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान। एक अन्य मीमांसा के अनुसार ‘क’ का अर्थ जीव और ‘अ’ का अर्थ विष्णु है, वर अर्थात जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम। इसी तरह ‘कां’ का अर्थ जल माना गया है और आवर का अर्थ उसकी व्यवस्था। जलपूर्ण घटों को व्यवस्थित करके विश्वात्मा शिव को अर्पित कर परमात्मा की व्यवस्था का स्मरण किया जाता है। ‘क’ का अर्थ सिर भी है, जो सारे अंगों में प्रधान है, वैसे ही शिव के लिए कांवड़ का महत्व है जिससे ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन होता है। क का अर्थ समीप और आवर का अर्थ सम्यक रूप से धारण करना भी है। जैसे वायु सबको सुख, आनंद देती हुई परम पावन बना देती है वैसे ही साधक अपने वातावरण को पावन बनाए।

कांवड़ यात्रा का एक ऐसा भी रुप

इन तमाम अर्थों के साथ कांवड़ यात्रा का उल्लेख एक रूपक के तौर पर भी करते हैं। गंगा शिव की जटाओं से निकली। उसका मूल स्रोत विष्णु के पैर है। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर विष्णु ने गंगा से जब पृथ्वी पर जाने के लिए कहा तो वह अपने इष्ट के पैर छूती हुई स्वर्ग से पृथ्वी की ओर चली। वहां उसके वेग को धारण करने के शिव ने अपनी जटाएं खोल दी और गंगा को अपने सिर पर धारण किया।

वहां से गंगा सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिए बहने लगी। कांवड़ यात्रा के दौरान साधक या यात्री वही गंगाजल लेकर अभीष्ट शिवालय तक जाते हैं और शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। शिवमहिम्न स्तोत्र के रचयिता आचार्य पुष्पदंत के अनुसार यह यात्रा गंगा का शिव के माध्यम से प्रत्यावर्तन है- अभीष्ट मनोरथ पूरा होने के बाद उस अनुग्रह को सादर श्रद्धा पूर्वक वापस करना। कांवर से गंगाजल ले जाने और अभिषेक द्वारा शिव को सौंपने का अनुष्ठान शिव और गंगा की समवेत आराधना भी है।

कांवड़ की व्युत्पत्ति

कांवड़ के व्युत्पत्तिपरक जो अर्थ किए गए हैं, उनमें एक के अनुसार क अक्षर अग्नि को द्योतक है और आवर का अर्थ ठीक से वरण करना। प्रार्थना यह है कि अग्नि अर्थात स्रष्टा, पालक एवं संहारकर्ता परमात्मा हमारा मार्गदर्शक बने और वही हमारे जीवन का लक्ष्य हो तथा हम अपने राष्ट्र और समाज को अपनी शक्ति से सक्षम बनाएं। देवभूमि हिमालय को देवताओं का निवास भी कहा गया है। शिव भी इसी क्षेत्र कैलाश में कहीं रहते हैं।

कम से कम श्रद्धालु जन तो यही मानते हैं कि शिव परमात्मा के रूप में तो सर्वव्यापी हैं, कण कण में विराजमान हैं पर पार्थिव रूप में वे इसी क्षेत्र में यहीं रहते हैं। उनसे संबंधित पुराण प्रसिद्ध घटनाओं का रंगमंच यही क्षेत्र रहा है। महाकवि कालिदास ने हिमालय को शिव का प्रतिरूप बताते हुए इसके सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व को रेखांकित किया है।

ओंकारेश्वर महादेव के दर्शन पूजन को उमड़े भक्त, 36 घंटे निरंतर खुले रहेंगे पट

Posted by Neo News-Har Pal Ki Khabar on Wednesday, 10 March 2021

उनके अनुसार हिमालय को देखें तो समाधि में बैठे महादेव, बर्फ के समान गौर उनका शरीर, चोटियों से बहते नद, नदी ग्लेशियर, झरने उनकी जटाएं, रात में चन्द्रोदय के समय सिर पर स्थित चन्द्रकला, गंगानदी का धरती पर आता अक्स खुद-ब-खुद दिमाग में उभरता जाता है।

शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है। गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है। अत: सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है।

कांवड़ शिव के उन सभी रूपों को नमन है। कंधे पर गंगा को धारण किए श्रद्धालु इसी आस्था और विश्वास को जीते हैं। यों भी कह सकते हैं कि कांवड़ यात्रा शिव के कल्याणकारी रूप और निष्ठा के नीर से उसके अभिषेक को तीव्र रूप में प्रतिध्वनित करती है।

महाशिवरात्रि: दूल्हा बने भगवान पशुपतिनाथ, दर्शनों को उमड़ा भक्तों का सैलाब

Posted by Neo News-Har Pal Ki Khabar on Wednesday, 10 March 2021
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