Monday, April 29, 2024
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जब मैं आसमान में उड़ने लगा

  • विजय कुमार गुप्ता

जब मैं आसमान में उड़ने लगा

     विजय कुमार गुप्ता

     मथुरा। बात सन उन्नीस सौ अस्सी के मध्य की है। मैं गहरी नींद में सोया हुआ था। मुझे स्वप्न हुआ कि मैं आसमान में दूर-दूर तक उड़े जा रहा हूं। बीच-बीच में जमीन पर भी उतर आता किंतु पैरों को जरा सा ऊंचा करके उचकने जैसी कोशिश करते ही फिर ऊपर उठ जाता तथा जितनी ऊंचाई पर उठना चाहता उतनी ही ऊंचाई पर पहुंच जाता और जिस ओर जाना चाहता उसी ओर काफी दूर तक उड़ता ही चला जाता। मुझे बड़ा सुखद और विचित्र अनुभव स्वप्न के द्वारा हो रहा था।
     मेरा स्वप्न चल रहा था या समाप्त हो गया यह तो मुझे याद नहीं किंतु सूर्योदय के समय बड़ी जोर की धूम धड़ाम की आवाजों से मेरी नींद टूट गई और मैं हड़बड़ा कर उठा तथा देखने लगा कि यह आवाज कहां से आ रही है। मैंने अपने कमरे का पिंजर खोला तो देखा कि रेल की पटरी पर एक मालगाड़ी खड़ी हुई थी और उसमें से बड़े-बड़े लोहे के गाटर तथा पुल बनाने का अन्य हैवी सामान उतर रहा था। रेलवे की लेबर जिसमें सरदार अधिक थे, जोर लगा के हाईशा जोर लगा के हाईशा की आवाज पूरी ताकत के साथ लगा रहे थे।
     यह दृश्य देखते ही मानो मैं खुशी से पागल हो उठा क्योंकि यह मेटेरियल हमारे घर के निकट यमुना जी पर बने रेल के पुल पर पैदल चलने वालों के लिए गैलरी (रास्ता) बनाने हेतु आया था, जिसके लिए मैं न सिर्फ बचपन से उम्मीद लगाए हुए था बल्कि किशोरावस्था से ही खुद भी प्रयासरत था। उस समय तो ऐसा लगा कि मानो मैं सचमुच में बगैर पंखों के ही उड़ रहा हूं। पूरे शहर में हल्ला मच गया कि पुल पर गैलरी बनाने का कार्य शुरू होने जा रहा है लोगों ने मुझे अपने सिर आंखों पर बिठा लिया। यह सब आसमान में उड़ने से कम नहीं था। मेरे बचपन का स्वप्न जो सच होने जा रहा था।
     मैं अपने जीवन में उस दिन सबसे पहले स्वप्न में उड़ा तथा उसके बाद भी एकाध अवसर ऐसे आए। जब जब मैं स्वप्न में उड़ा तब तब कोई बहुत बड़ी खुशी और शोहरत की बात सामने आई। यानी कि स्वप्न के द्वारा पूर्वाभास हो जाता था। मेरे जीवन का वह विलक्षण दिन था जब मैं पहली बार उड़ा शायद पूरी जिंदगी का सबसे सुखद और सुन्दर दिन।
     करीब छः दशक पूर्व तक इसी पुल से न सिर्फ पैदल लोग बल्कि साइकिल, रिक्शा, तांगे, बैलगाड़ी, कार तथा बस ट्रक आदि सभी गुजरते थे। जब रेल आती तो दोनों ओर फाटक लग जाते और रेल के जाने पर फाटक पुनः खुल जाते और यातायात सामान्य हो जाता। इसके बाद पुल की मियाद समाप्त होने पर रेलवे द्वारा इसे रेल के अलावा अन्य सभी वाहनों यहां तक कि पैदल तक के लिए बंद कर दिया तथा प्रदेश सरकार द्वारा सभी वाहनों व पैदल तक के लिए नया पुल बनवा दिया।
     नये पुल से जाने आने में पैदल चलने वालों को काफी लंबी दूरी तय करनी पड़ती थी अथवा नाव से जाने आने में पैसे खर्च करने पड़ते थे। अतः वे इसी रेल के पुल से पटरियों के मध्य होकर निकलने लगे और अचानक रेल के आ जाने पर भगदड़ मचती तथा कोई भागकर पास की कोठी पर पहुंच जाता तो कोई कोठी तक न पहुंचने पर यमुना जी में कूद जाता उनमें कुछेक डूब भी जाते थे कोई कोई अभागा तो रेल से कटकर मर भी जाता। दुर्घटनाग्रस्त होकर भी जो बच जाते वे जीवनभर के लिए अपाहिज बने रहते। मुझे याद आ रहा है कि एक आदमी जो कमर या जांघ के पास से कट गया और उसके दो टुकड़े हो गये, वह तड़फ तड़फ कर कह रहा था कि मुझे अस्पताल मत ले जाओ, यहीं यमुना जी में पटक दो अब मैं जी कर क्या करूंगा। बाद में वह मरा या जिंदा रहा मुझे याद नहीं लेकिन यह कारुणिक दृश्य जब भी जब मुझे याद आता है तो मेरे मन को झकझोर कर रख देता है।
     आये दिन महिला और पुरुषों का रेल से कटना और फिर तड़फ तड़फ कर मरना या जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाना यह सब देख कर मैं बहुत व्यथित हो जाता था। जब इस पुल से लोगों का कटना मरना शुरू हुआ तब मैं शायद पांच सात वर्ष का था। कटने मरने का यह सिलसिला चलता रहा और उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरे अंदर की पीड़ा भी बढ़ती जा रही थी। कभी-कभी तो मैं बड़ा व्याकुल हो जाता किंतु बेबस होकर रह जाता।
     जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो सबसे पहले मैंने नवभारत टाइम्स में एक पत्र इस समूचे घटनाक्रम पर विस्तार से लिख कर भेजा जो 8 अक्टूबर सन 1968 में पाठकों के पत्र स्तंभ में प्रमुखता से छपा जिसका शीर्षक था “मथुरा का रेल पुल” इस पत्र में मैंने सरकार से मांग की कि पैदल चलने वालों के लिए शीघ्र ही रास्ता बनाया जाय ताकि आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं को रोका जा सके। इस पत्र का कोई असर नहीं हुआ और कटने मरने का सिलसिला चलता रहा।
     किशोरावस्था पार करके जब मैं युवावस्था में आया तब मेरे अंदर आक्रोश और क्रोध की ज्वाला धधकने लगी तथा मैंने भी सोच लिया कि अब तभी चैन से बैठूंगा जब इस पुल पर पैदल चलने वालों के लिए रास्ता बनवा लूंगा। सबसे पहले मैं मथुरा के जिलाधिकारी के.एस. त्रिपाठी से मिला तथा सारी बात बताई। जिस समय में जिलाधिकारी से मिला था उस समय भारतीय युवा जनता मोर्चा के तत्कालीन जिला अध्यक्ष विनोद टैंटीवाल भी अपने प्रतिनिधिमंडल के साथ अपनी समस्याओं को लेकर बातचीत कर रहे थे। उन्होंने भी मेरी बात की पुष्टि करते हुए सविस्तार जिलाधिकारी को समझाया।
     खैर में कभी जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक कभी विधायकों तथा कभी सांसद से मिलता रहा और अपनीं बात कहता रहा किंतु नतीजा शून्य। ज्यादा से ज्यादा यह होता कि जब अधिक लोग कट जाते और हो-हल्ला मचता तो फिर एकाध दिन को पुल के दोनों और पुलिस का पहरा लगा दिया जाता ताकि कोई पटरियों के बीच से जा आ न सके। लोग काटते रहे मरते रहे और प्रशासन, शासन तथा रेलवे के कान पर जूं न रेंगी।
     इसके बाद मैंने दिल्ली जाकर रेल मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया। वहां पर मुझे बताया गया कि हम जब तक पुल पर रास्ता नहीं बना सकते तब तक कि उत्तर प्रदेश सरकार इसका पैसा खर्च करने को तैयार न हो। इसके बाद मैंने अपने आप को पूरी तरह इस मिशन में झोंक दिया तथा मुख्यमंत्री राम नरेश यादव के नाम तीन पृष्ठ का एक ज्ञापन तैयार कराया और उसकी सौ प्रति साइक्लोस्टाइल से निकलवा कर मुख्यमंत्री से लेकर सभी विधायकों तथा राजनैतिक पार्टियों के बड़े नेताओं के पास डाक से व जहां जा सकता था खुद जाकर दिया। यह मैटर सैनिक के प्रतिनिधि श्री नरेंद्र मित्र जी ने तैयार कराया था, वे इस मिशन में मेरे बहुत मददगार रहे। एक दो देहात के विधायक तो मुझसे लल्लू लल्लू कहकर बात करते थे जो मुझे बड़ा अच्छा लगता था। कई बार तो श्री नरेंद्र मित्र जी भी मेरे साथ सांसद मनीराम बागड़ी व विधायकों के पास गये।
     एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पहली बार जिलाधिकारी से मिलने की शुरुआत से लेकर आगे के सभी घटनाक्रमों की जानकारी मैं अमर उजाला के प्रभारी श्री कांति चंद्र जी अग्रवाल तथा सैनिक के प्रभारी श्री नरेंद्र मित्र जी को देता और फिर अखबारों में खबरें छपती उसमें मेरा नाम भी छपता जिससे मैं बड़ा उत्साहित हो जाता यानीं कि छपास का चस्का भी लग चुका था। इस सिलसिले में दिल्ली तो शायद मेरे कमोवेश पन्द्रह बीस चक्कर लगे होंगे तथा एक बार लखनऊ भी गया। जब मेरे लाख सिर पीटने पर भी मामला आगे नहीं बढ़ा तो फिर मैं ऐसा पागल सा हो गया कि पूंछो मत।
     मैंने मथुरा में आने वाले हर नेता को मुख्यमंत्री के नाम तैयार साइक्लो स्टाइल वाला ज्ञापन देना शुरू कर दिया (उस समय टाइप की ज्यादा प्रति साइक्लोस्टाइल से ही मिलती थीं) तथा दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर के दिग्गजों की कोठियों पर पहुंचकर उनसे मिलना और आए दिन होने वाली मौतों को रोकने की गुहार लगाना शुरू कर दिया। मैंने इंदिरा गांधी जो उस समय सत्ता में नहीं थी से लेकर चंद्रशेखर जो उस समय देश की सत्तारूढ़ जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, तक अनगिनत नेताओं से मुलाकात की। इंदिरा गांधी ने कहा कि हम तो अपोजिशन में हैं क्या कर सकते हैं? आप जो एप्लीकेशन वगैरा लाए हैं उसे दे जाएं हम इस मामले को पार्लियामेंट में उठवाऐंगे। इंदिरा गांधी उस समय 12 बिल्डिंगन क्रीसैट कोठी में रहती थी
     चंद्रशेखर से मुलाकात जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय में हुई। जब वे वहां से निकल कर कहीं जाने हेतु अपनी गाड़ी में बैठने वाले थे। उन्होंने तुरंत अपने पी.ए. को नोट कराया पी.ए. ने गाड़ी के बोनट पर अपनी डायरी रखकर पत्र नोट किया। चंद्रशेखर ने लिखाया कि प्रिय मधु जी (मधु दंडवते जो उस समय रेल मंत्री थे) मथुरा में रेल के पुल पर लगातार लोग कटकर मर रहे हैं। आप तुरन्त इस मामले को देखें और कार्यवाही करें। उसी पत्र में उन्होंने आगे यह भी लिखाया कि पटना में एक आरक्षी के स्थानांतरण के बारे में मैंने पहले भी आपको लिखा था उसका अभी तक अमुक स्थान पर स्थानांतरण नहीं किया गया है। कृपया इस कार्य को भी देखें। इसी दौरान एक दिन मैं मधु दंडवते (रेल मंत्री) से मिलने रेल भवन में गया तो मुझे मिलने की अनुमति नहीं मिली लेकिन मैं नजर बचाकर अपनी तिकड़म  से उनके कार्यालय के अन्दर घुस गया। इस पर उन्होंने अपने पी.ए. सुब्रमण्यम को डांट लगाई कि मिस्टर सुब्रमण्यम यह लड़का बगैर अपॉइंटमेंट के कैसे अंदर आ गया? पी.ए. ने मुझसे कहा कि आप पहले अपॉइंटमेंट लें फिर मिल सकोगे यानीं कि मेरी बात तक नहीं सुनी और मैं बैरंग लौट आया। इसके पश्चात दिनों दिन मेरा धमाल बढ़ता चला गया और मैं तरह-तरह से सभी नेताओं का ध्यान इस ओर खींचने लगा। इस दौरान मैं स्थानींय विधायकों व अन्य राजनैतिक लोगों के लेटर पैड मांग लाता था और उन पर मुख्यमंत्री व रेल मंत्री के लिए पत्र टाइप करा कर फिर उनके हस्ताक्षर करा कर डाक से भेज देता और उसकी एक प्रति अखबार में देकर उनकी खबर भी छपवा देता तथा फलस्वरुप नेता भी खुश हो जाते।
     एक बार मुख्यमंत्री राम नरेश यादव मथुरा आये पता लगते ही मैं अपनी साइकिल से मिलिट्री हेलीपैड पर भागा। कैरियर पर फाइल लगी हुई थी पुलिस वालों ने रोका तो मैंने कहा कि मुख्यमंत्री जी को बहुत जरूरी कागज पहुंचाने हैं। इस पर उन्होंने मुझे जाने दिया। उस समय मुख्यमंत्री वापस जाने की तैयारी में थे। वे हेलीकॉप्टर में बैठने ही वाले थे कि मैंने अपनी भड़ास निकालते हुए बेलगाम बोलना शुरु कर दिया। संयोग से उस दिन भी रेल से एक दो लोग कट गए थे। मुख्यमंत्री पूरी बात ढंग से समझ नहीं पा रहे थे तब उस समय के चेयरमैन स्वर्गीय श्री एस. के. सी. भार्गव ने मुझसे कहा कि बेटे तुम रुको मैं समझाता हूं।
     इसके बाद उन्होंने पूरी बात रामनरेश यादव को समझाई तब मुख्यमंत्री ने डी.एम. व एस.एस.पी. आदि सभी अधिकारियों को डांट लगाई। जब मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर उड़ गया तब सिटी मजिस्ट्रेट एस. एन. पांडे तथा सीओ सिटी के.डी. दीक्षित मेरी साइकिल को अपनी गाड़ी में रखवाकर मुझे साथ लेकर घटनास्थल तक आये। रास्ते में सिटी मजिस्ट्रेट कुपित हो रहे थे क्योंकि मैंने मुख्यमंत्री से जो शिकायत कर दी थी।
     सी.ओ. सिटी दीक्षित बड़े मस्त स्वभाव के थे। वे मुझसे रास्ते में बोले कि गुप्ता जी जरा यह तो बताओ कि किसी लड़की को कभी दिल भी दिया है क्या? इस पर मैंने तपाक से कहा कि आपको अपने स्टूडेंट लाइफ की पुरानीं खुराफातें याद आ रही हैं क्या? मेरी बात का बजाय बुरा मानने के वे दोनों खूब हंसे। इसके बाद उन्होंने कुछ दिन को रेल के पुल पर पुलिस का पहरा बैठा दिया किन्तु बाद में फिर वही ढाक के तीन पात। एक बार तो एक साथ काफी लोग कटकर मर गये यह समाचार देश के सभी बड़े बड़े अखबारों व ऑल इंडिया रेडियो के हर बुलेटिन में पूरे दिन प्रसारित हुआ। मुझे याद है कि हिंदुस्तान टाइम्स के प्रथम पृष्ठ की संक्षेप वाली हेड लाइन में पहले नम्बर पर छपा था इस घटना की पूरे देश में गूंज हुई।
     इस पुल पर एक बार टीकमगढ़ के सांसद भैया लाल की पत्नी भी कटकर मर गईं थीं। सांसद मनीराम बागड़ी के पास जब वे मथुरा आते तब और फिर दिल्ली में मैंने अनगिनत चक्कर लगाये। वे तुरंत पत्र तो लिख देते किन्तु बाद में प्रयास पूरी तरह नहीं कर पाते। एक बार जब मुख्यमंत्री बनारसीदास थे तब वे चुनावी सभा के दौरान भगत सिंह पार्क में घोषणा भी कर गये कि मथुरा में यमुना के रेल के पुल पर गैलरी का निर्माण किया जायगा, किंतु चुनाव के बाद टांय टांय फिस्स। रेलवे के बहुत बड़े अधिकारी थे जे.एल. कौल, जो रेल भवन में बैठते थे एक दिन मुझसे बोले कि आपके घर वाले आपको रोकते नहीं है क्या? बार-बार दिल्ली आने को। मनीराम बागड़ी भी मुझे बार बार चक्कर लगाने से बड़े हतप्रत रह जाते। वे कहते कि बेटे मैंने तुम्हारे जैसा लड़का नहीं देखा।
     मनीराम बागड़ी से पहले या बाद में यह तो ध्यान नहीं किन्तु चौधरी दिगंबर सिंह ने भी एक बार यह मामला शून्यकाल के दौरान लोकसभा में उठाया था। कन्हैया लाल गुप्त जो विधायक थे उन्हें छोड़कर मथुरा के कई विधायकों ने विधानसभा में यह बात उठाई। कन्हैयालाल जी मुझसे कहते कि बेटे विजय मैं विधानसभा में इस मामले को जोर-शोर से उठा तो दूंगा किन्तु फिर पीडब्ल्यूडी से रिपोर्ट मांगी जाएगी और पी.डब्ल्यू.डी ने अगर यह लिखकर दे दिया कि हमारे पास धन की कमी है अथवा धन आभाव के कारण हम पुल पर गैलरी के निर्माण की धनराशि खर्च करने की स्थिति में नहीं है तो फिर यही बात पी.डब्ल्यू.डी के मंत्री त्रिलोक चंद्र विधानसभा में दे देंगे और मामला समाप्त हो जायगा। खैर यदि किसी विधायक ने इस मामले में सबसे ज्यादा रुचि ली थी तो वे थे कन्हैया लाल गुप्त। वे जड़ में रहकर कार्य करते थे। एक बार कन्हैया लाल जी जिला प्रशासन पर इतने कुपित हुए कि उन्होंने एक बड़ी दुर्घटना के बाद अमर उजाला में एक वक्तव्य जारी करके कहा कि ऐसा लगता है कि प्रशासन का खप्पर अभी खून से भरा नहीं है इस पर पूरा जिला प्रशासन बहुत भारी शर्मिंदगी से भर उठा। इसके बाद काफी दिन तक पुलिस का पहरा पुल पर बना रहा। दरअसल मामला यह था कि रेलवे का कहना था कि हमारी रेल गुजर जाती है हम क्यों बनवाएं? और प्रदेश सरकार कहती कि जब हमने दूसरा नया पुल बनवा दिया है तो लोग क्यों जाते हैं उस पुल पर मरने के लिए।
     उस दौरान जिला कांग्रेस के अध्यक्ष श्री पी.एल. मिश्रा थे। उन्होंने मुझसे कहा कि बेटे तुम अच्छा काम कर रहे हो मेरी शुभकामनाएं हैं किन्तु यह कार्य संभव नहीं है क्योंकि हम लोग बहुत प्रयास पहले ही कर चुके हैं। पंडित कमलापति त्रिपाठी जो पहले रेल मंत्री रह चुके थे उनसे भी बहुत कहा जा चुका था। सिर्फ एक व्यक्ति मुझे ऐसे मिले जिन्होंने मुझसे कहा था कि इस कार्य को तुम जरूर करा लोगे। वे थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कर्मठ कार्यकर्ता बाबूलाल जी होटल वाले। वे कहते थे कि लगी “बड़ी बुरी होती” है और तुम लगे हुए हो और वह भी बड़ी लगन से इसीलिए गैलरी का निर्माण होकर ही रहेगा। बाकी के सभी लोग कहते थे कि खांमखा क्यों पत्थर से सिर मार रहे हो होना जाना कुछ भी नहीं किन्तु मुझे पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन मेरी मेहनत जरूर सफल होगी और हुआ भी यही।
     खैर हार झक मारकर उत्तर प्रदेश सरकार ने गैलरी के निर्माण का धन स्वीकृत किया। वह धनराशि थी चार लाख चौहत्तर तीन सौ तेईस रुपए। इसके अलावा दस हजार सालाना इसके रखरखाव का। इस कार्य में सफलता न मिलने पर जब मैं हताश सा होने लगा था तब मैंने आमरण अनशन तक की धमकी देकर यह खबर अखबारों में छपवा दी। हालांकि यह सिर्फ धमकी ही थी केवल प्रेशर बनाने के लिए क्योंकि मैं ज्यादा देर तक भूख को बर्दाश्त ही नहीं कर सकता। हां एक चिंता भी जरूर रहती थी कि कहीं मैं आजीवन कुंवारा न रह जाऊं क्योंकि मैंने गैलरी बनाने के बाद ही शादी करने की प्रतिज्ञा जो मन ही मन कर रखी थी। मेरी नींचे की सीढ़ी वालों की शादी तो क्या बच्चे भी पैदा होने लग गये थे। गैलरी निर्माण के लिए मैंने  सभी देवी देवताओं से मनौती भी मांगी।
     एक और बात अपनी पीठ ठोकते हुए बताता हूं कि पूर्वोत्तर रेलवे के चीफ इंजीनियर ब्रिज श्री पी.एस. सुब्रमण्यम तो मुझसे इतने प्रभावित हुए कि खुद मुझसे मिलने मथुरा आये उनके लिए विशेष सैलून आया था। मथुरा कैंट पर उन्हीं के सलून में मेरी उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने मुझे बड़ा सम्मान दिया और गैलरी बनने की पूरी रूपरेखा भी समझाई। गोरखपुर जाकर उन्होंने मुझे एक व्यक्तिगत पत्र लिखकर कहा कि आज देश को आपके जैसे नौजवानों की जरूरत है। इसके अलावा पता नहीं क्या क्या विश्लेषण लिख डाले।
     यही हाल विधायक कन्हैया लाल गुप्त जी का था वे अन्तिम दिनों तक मुझसे विशेष स्नेह मानते रहे तथा उनके द्वारा एक दो नहीं दर्जनों पत्र मुझे ऐसे आशीर्वादी लिखे गये कि क्या कहूं। पुल पर पैदल रास्ते के निर्माण का सबसे ज्यादा श्रेय में ईश्वर, पूर्वजों, कांति चंद्र जी अमर उजाला वालों, नरेंद्र मित्र जी सैनिक वालों, कन्हैया लाल जी तथा अपने पिताजी को देता हूं। पिताजी को इसलिए कि उन्होंने भाग दौड़ टाइपिंग व डाक व्यय को बराबर पैसे देते रहे। यही नहीं उन्होंने मुझे यह छूट भी दे दी कि भले ही काम धंधे की ओर कोई ध्यान मत दे पर इस कार्य को करवा कर ही मानना। सन 1968 से शुरू हुआ मेरा यह जुनून 1980 में तब समाप्त हुआ जब इस गैलरी का निर्माण कार्य शुरू हो गया
     एक बड़ा भयानक मामला जो घटित नहीं हुआ आपको बताना चाहता हूं। यदि वह मामला घटित हो गया होता तो शायद मथुरा क्या देश भर में हाहाकार मच जाता। बात यह हुई कि जब पुल पर गैलरी के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई तो मैंने अपने घर पर खुशी में जलपान की पार्टी रखी जिसमें तत्कालीन विधायक कन्हैया लाल गुप्त, सी.ओ. सिटी के.डी. दीक्षित, कोतवाल बासुदेव श्रोतिय, मूर्धन्य विद्वान डॉ वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी, मूर्धन्य पत्रकार श्री नरेंद्र मित्र, श्री कांति चंद्र जी, हेल्थ ऑफिसर डॉ. के.सी. अग्रवाल तथा शहर के अनेक गणमान्य नागरिक शामिल हुये।
     पार्टी के बाद मैंने कहा कि चलो गैलरी के निर्माण का निरीक्षण कर लिया जाय। चूंकि कार्य परली पार से शुरू हुआ था मेरे कहने पर। परली पार जाने के लिए सभी लोग रेल की पटरीयों के मध्य से चल दिये। कुछ ही दूर चले होंगे कि अचानक कैंट की ओर से बड़ी तेजी से माल गाड़ी आ गयी। बस फिर क्या था भगदड़ मच गई कोई वापस पीछे की ओर दौड़ा कोई आगे कोठी पर पहुंचा और जैसे ही सभी लोग आगे पीछे हो कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचे ही होंगे कि आनन-फानन में गाड़ी धड़धड़ाती हुई पुल से गुजर भी गयी। भगवान का लाख-लाख शुक्र जो ऐसी दुखद घटना घटित होने से बच गयी। जिसकी कल्पना मात्र से आज भी मेरी रूह कांप उठती है।
     एक और रोचक बात आपको बताऊं कि कभी-कभी कुछ विधायक व अन्य जनप्रतिनिधि अलकसा भी जाते कि यह लड़का तो रोज-रोज आ जाता है। इसका निदान मैंने इस रूप में किया कि कभी दिवाली आदि के किसी भी मौके पर एक किलो पेड़ों का डब्बा उनकी भेंट कर देता जिससे वे बड़े खुश हो जाते। यह कार्य में सांसद मनीराम बागड़ी तथा अन्य रेलवे के अधिकारियों के साथ भी करता था। केवल कन्हैया लाल गुप्त ही ऐसे विधायक थे जिन्होंने एक किलो क्या एक पेड़ा तक स्वीकार नहीं किया। उस समय के सांसद एवं विधायकों में केवल हुकुम चन्द्र तिवारी ही मौजूद हैं। एक बार तिवारी जी ने अन्य सभी आगन्तुकों के सामने अपने कोतवाली रोड स्थित पुराने घर पर कहकहा लगाते हुए कहा कि “जे लल्लू चांय जो मिनिस्टर हो, बाइके पास पहौंच जाय चांय बासै गैलरी कौ कोई मतलब होय या ना होय” उनके कहने में हास परिहास के साथ उपहास भी था। उसके कुछ दिन बाद दिवाली आई और मैं एक किलो पेड़े का डिब्बा लेकर जा पहुंचा। तिवारी जी बड़े खुश हो गये और बोले कि “विजय बाबू और काई की मिठाई खाऊं या ना खाऊं पर तुम्हारी मिठाई जरूर खाऊंगौ” उसके बाद फिर कभी उन्होंने मेरी हंसी नहीं उड़ाई।
     एक और मजेदार बात यह कि इन दुर्घटनाओं में मृतक की संख्या कम करके दिखाने की गरज से आला पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के इशारे पर पुलिसकर्मी बाहर के यात्रियों के कुछ शवों को चुपचाप यमुना में बहा देते और संख्या कम करके बतादी जाती। इसका बदला मैंने इस रूप में लिया कि बाढ़ के दिनों में मैं भी मृतकों की संख्या अधिक बताकर अखबारों में छपवा देता। जब अधिकारी मुझसे कहते के डेड बॉडी तो कम मिली हैं बाकी की कहां हैं? मैं भी झूठ कह देता कि यमुना जी में बह गयीं। वे पूंछते कि कौन था कहां का था कुछ अता पता तो बताओ? इस पर मैं भी यह जवाब दे देता कि इस सब का क्या मैंने ठेका ले रखा है। आप खुद पता करो यह जिम्मेदारी मेरी नहीं आपकी है। इस पर वे बेबस होकर चुप रह जाते। सभी अखबार वाले मेरी बात को मान लेते थे जो मैं लिखकर दे देता वही छप जाता। पत्रकारों के संपर्क में आने के कारण ही आगे चलकर मैं आठवीं तक पढ़ा होकर भी पत्रकार बन बैठा।
     जैसे जैसे मैं इस लेख को समाप्त करने की सोचता हूं वैसे वैसे बजाय समाप्त होने के नई नई बातें दिमाग में आ जाती हैं और मैं उन्हें अपने अन्दर रख नहीं पा रहा हूं। एक और रोचक प्रसंग बताता हूं। उस समय सत्तारूढ़ पार्टी के जिला अध्यक्ष ठाकुर जुगेंद्र सिंह थे। उन्होंने मेरा सहयोग भी किया तथा एक बार सिंचाई मंत्री के सामने जिलाधिकारी के. एस. त्रिपाठी को झिड़क सा दिया। असल में सिंचाई विभाग के डाक बंगले पर समस्याओं को लेकर बैठक चल रही थी। मैंने जोगेंद्र सिंह से इस मामले को उठाने को कहा जोगेंद्र सिंह जी ने उन्हें इस बात को बताया और मैंने भी मंत्री को समझाया। मंत्री जी ने जिलाधिकारी से पूंछा तो उन्होंने कहा कि यह मामला पी.डब्ल्यू.डी. से संबंधित है। तथा मेरी ओर इशारा करके कहा कि इन्हें पी.डब्ल्यू.डी. मिनिस्टर को लिखना चाहिए। इस पर जोगेंद्र सिंह जी ने जिलाधिकारी में झिड़की सी लगाते हुए कहा कि इनके लिखने से क्या मतलब निकलेगा कौन सुनेगा इनकी बात? आप किसलिए बैठे हो आपको नहीं लिखना चाहिए क्या? इस पर के.एस. त्रिपाठी का मुंह उतर गया।
     अब जोगेंद्र सिंह जी का दूसरा नेगेटिव प्रसंग भी बताता हूं। उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि एक बिल्टी छुड़ानी है ढाई सौ रुपए की जरूरत है। मैंने कहा कि ठाकुर साहब में ढाई सौ रुपए कहां से लाऊंगा। इसी भागदौड़ में ही मेरा पूरा जेब खर्च लग जाता है। इस पर उन्होंने कहा कि विष्णु चौबे से दिब्बादै। चूंकि मैंने एक फर्जी कमेटी बना रखी थी उसका नाम था “यमुना रेल पुल निर्माण मांग समिति” उसका अध्यक्ष विष्णु चौबे और मंत्री विजय कुमार गुप्ता थे और उसकी एक मोहर भी बनवा ली। यह सब ड्रामा इसलिए किया कि सरकारों को लगे कि वास्तव में जन आन्दोलन हो रहा है। विष्णु चौबे जी भी खुश उनका नाम भी अखबारों में छपता था।
     इसीलिए जोगेंद्र सिंह ने विष्णु जी का नाम ले दिया। मेरे यह कहने पर कि मैं विष्णु जी से अपनी लिखा पढ़ी और भागदौड़ तक के लिए तो एक भी पैसा लेता नहीं आपके लिए क्यों मांगूंगा? बस इसी बात पर वह कुपित हो गये और बोले कि रेल मंत्री का जो जवाबी पत्र मेरे पास आया था, उसे मैंने तुझे दे दिया था, उसे वापस लाकर दे दै। मैंने तुरन्त पत्र उन्हें वापस लाकर दे दिया। इसके बाद तो वह मुझ से दुश्मनी थी मांगने लगे और काफी आगे चलकर जब सड़क हमारे पिताजी के नाम पर हुई तब भी उन्होंने इसका जबरदस्त विरोध ही नहीं किया बल्कि तत्कालीन पालिका अध्यक्ष श्री वीरेंद्र अग्रवाल जी से बहुत कुछ बुरा भला भी कहा। काफी समय बाद जोगेंद्र सिंह जी की एक जमीनी विवाद में रंजिशन हत्या हो गयी थी। मैं उनकी नाराजगी को नजरअंदाज कर उनके द्वारा दिए गए सहयोग के लिए आज भी आभारी हूं।
     वीरेंद्र जी को इसी सड़क की वजह से पता नहीं कितनों की भली बुरी सुननीं पड़ी किन्तु वे नहीं झुके और उन्होंने दमदारी से सभी को मुंहतोड़ जवाब देकर निरुत्तर भी किया। मैं वीरेंद्र जी के इस स्नेह को सलाम करता हूं। अब में प्रसंग से हटकर पता नहीं क्या-क्या अप्रसांगिक बातों को लिखे जा रहा हूं। अब आगे बढ़ता हूं पुनः गैलरी वाले प्रसंग की ओर।
     एक बार उपराष्ट्रपति बी.डी जत्ती परम पूज्य देवराहा बाबा के यहां आये। जब वे बाबा से बात कर रहे थे तब मैं भी निचाबला नहीं रहा और बातचीत के बीच में रेल के पुल वाला प्रसंग छेड़ दिया तथा हल्ला करके बोला कि बाबा मथुरा में लोग रेल से कट कट कर आये दिन मर रहे हैं। इनसे कहो कि इस काम को करायें। इस पर बाबा ने मुझे डांट लगाई और कहा कि का रेल रेल चिल्लाबत है। चुप रह फिर अन्त में उन्होंने उपराष्ट्रपति से कहा कि इस बचबा ने का कहा सुन लिया ना? इस पर उपराष्ट्रपति ने स्वीकारात्मक सिर हिला दिया।
     लोग मेरे बारे में यह सोचते थे कि शायद मैं इस मामले की आड़ में आगे चुनाव लड़ने की बैकग्राउंड बना रहा हूं। एक बार लोहवन गांव के एक रिक्शा चालक दाताराम जाटव की मृत्यु भी इसी पुल पर रेल से कटकर दिवाली पर हो गई। दाताराम एक महिला को बचाने के चक्कर में खुद जान से हाथ धो बैठा था। उसकी पत्नी पछाड़ खा खाकर दहाड़े मार रही थी मुझे उसका करुड़ क्रंदन नहीं देखा जा रहा था तब मैंने कुछ दिन बाद उसकी आर्थिक मदद हेतु पांच सौ रुपए विष्णु जी से कह कर दिलवाये। यह रुपए विष्णु जी मेरे साथ लोहबन जा कर खुद देकर आये थे। पैंतालीस बर्ष पूर्व पांच सौ रुपए की बहुत वकत होती थी। विष्णु जी द्वारा दिए गये इस दान से मुझे बड़ा सुकून मिला।
     अंत में कहना चाहूंगा कि मैंने अपनी सेखी बहुत बघार ली कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा ठीक यही स्थिति मेरे लेख की है। बिना ईट गारे और चूने के ही बना दिया उपन्यासी महल और बांध दिये अपनी तारीफों के पुल।

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