विजय गुप्ता की कलम से
मथुरा। वर्तमान राजनैतिक माहौल को देखते हुए बार-बार मन में प्रश्न उठता है कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हऊआ है? मन ही प्रश्न पूछता है और जवाब भी वही खुद-ब-खुद दे देता है कि “हां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हऊआ है” और छोटा मोटा नहीं बहुत बड़ा हऊआ जो सबको खा जायगा।
सबको खा जाने से मतलब उन सभी से है जो देशद्रोही और पुश्तैनी गद्दार यानी जयचंदी गोत्र के हैं। जिन्हें न राष्ट्र से मतलब न राष्ट्रीयता से कोई सरोकार और ना ही अपने राष्ट्र की मूल आत्मा सनातन धर्म से कोई लेना-देना सिर्फ स्वार्थ और येन केन यानी किसी भी प्रकार सत्ता तक पहुंचने की लालसा रखने तक सीमित है।
इस समय न सिर्फ कांग्रेस बल्कि अधिकांश राजनैतिक पार्टियां आर.एस.एस का नाम आते ही तिलमिला उठती हैं। उनके हिसाब से तो ऐसा लगता है कि हमारे देश का सबसे बड़ा दुश्मन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही है। कभी-कभी मैं बड़ा असमंजस में पड़ जाता हूं कि भले ही राजनैतिक लोग तो अपने स्वार्थ के कारण आर.एस.एस. को गालियां देते हों किंतु जनता भी उनके बहकावे में क्यों आ जाती है? जवाब सीधा सीधा है कि इसी जनता की पैदावार ही तो ये नेता हैं। कहते हैं कि “भय बिन होय न प्रीति” हमारे देश की जनता गुलामी की आदी रही है पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों की। न करे भगवान कि कहीं अगली बारी चीन की न आ जाय।
जनता को इस कदर छूट मिली हुई है जो जी में आऐ बके और जो जी में आऐ करे, गुंण दोष से इनका कोई मतलब नहीं। मेरा मानना है कि जब तक “दुकानदारी नरमी की और हाकिमी गरमी” की वाले नुक्से को नहीं अपनाया जायगा तब तक हमारे देश का भला होना अकल्पनींय है।
अब बात आर.एस.एस. की लें। हमारे पिताजी शुरू से ही कट्टर कांग्रेसी थे किंतु बावजूद इसके वे आर.एस.एस. की विचारधारा और संगठन से जुड़े रहे तथा नित्य प्रति शाखा जाना उनका धर्म था। जब कांग्रेस में गंदगी फैलने लगी तथा देश भक्ति के स्थान पर देशद्रोही संस्कृति का साम्राज्य बढ़ने लगा तभी से हमारे पिताजी ने कांग्रेस पार्टी से अपनी दूरी बना ली। पिताजी पुराने देशभक्त कांग्रेसियों के प्रति तो नतमस्तक रहते थे किंतु बाद में उपजे देशद्रोही रेसियों से दूर ही रहे। खैर हमें क्या मतलब कांग्रेसियों या अन्य सत्ता रेसियों से, मतलब की बात पर आता हूं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन 1925 में डॉ. हेडगेवार जी ने नागपुर में की थी। इस संगठन का उद्देश्य निस्वार्थ राष्ट्रभक्ति तथा मानसिक रूप से अर्धसैनिक भाव था। संगठन का मुख्य लक्ष्य स्वाधीनता और हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना था।
जब जब देश पर संकट आया चाहे 1962 में चीन की लड़ाई रही हो अथवा पाकिस्तान से हुई बार-बार की लड़ाइयां या फिर प्राकृतिक आपदाएं हों यानी हर मौके पर संघ के स्वयंसेवकों ने अपना धर्म निभाया। चीन की लड़ाई में स्वयंसेवकों द्वारा सीमा पर जाकर सैनिकों को जो मदद की उससे प्रभावित होकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के नजरिए में बदलाव आया और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में आर.एस.एस. को शामिल होने का न्योता दिया। मात्र दो दिन के अल्प समय में तैयारी करके तीन हजार स्वयं सेवकों ने अपने गणवेश में परेड का हिस्सा बनकर जो शानदार प्रदर्शन किया उससे पंडित नेहरू सहित सभी लोग प्रभावित हुए।
अब बात अनुशासन की लें तो यदि अन्य संगठनों की बैठकों में होने वाली जूतम पैजार और मारधाड़ की तुलना में संघ की बैठकों को देखा जाय तो जमीन आसमान नहीं आसमान और पाताल का अंतर नजर आयेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर शायद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। पहली बार जब प्रतिबंध लगा तो उसके विकल्प के रूप में जनसंघ अस्तित्व में आया और अब जनसंघ का दूसरा स्वरूप भारतीय जनता पार्टी है।
मेरा मानना है कि आज यदि देश में सभी पार्टियों व संगठनों को तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो देशभक्ति में सबसे ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नजर आयेगा। मैं कोई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य नहीं हूं और ना ही संघ के किसी कार्यक्रम में कभी भाग लिया किंतु मेरा डी.एन.ए. संघ के विचारों से मेल खाता है। मैं इतना जरूर कहूंगा कि जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों व अन्य शीर्ष विभूतियों की छवि की मन में कल्पना की जाय तो ऋषि, मुनियों जैसा आभास होता है और अन्य संगठनों व पार्टियों के जन्मदाताओं व कर्ता धर्ताओं के बारे में कल्पना की जाय तो जमीन आसमान का अंतर मिलता है।
अब अंत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित भारतीय जनता पार्टी के लिए भी अपने विचार बताना चाहता हूं। जब हम छोटे बच्चे थे तब सबसे अधिक प्रचलन कांग्रेस का था तथा दूसरे नंबर पर जनसंघ आता था। कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी और जनसंघ का चुनाव चिन्ह जलता हुआ दीपक। कांग्रेस का झंडा तिरंगा और जनसंघ का झंडा केसरिया यानी भगवा लहराता था। उस समय जनसंघ को अनुशासित व तपे हुए चरित्रवान लोगों की पार्टी माना जाता था। किंतु अब तो सत्ता के प्रभाव से स्थिति पहले जैसी नहीं रही जो तपे हुए निष्ठावान लोग थे वे तो हाशिए पर चले गए और “जहां पै देखी भरी परात वहीं पै जागे सारी रात” वाले दलबदलू मजे ले रहे हैं।
यही नहीं जो भले ही दलबदलू नहीं है किंतु उनका डीएनए संघ या जनसंघ से कतई मेल नहीं खाता वे भी तिकड़म से टिकट पाकर मंत्री बन जनता के धन को खींच खींच कर निचोड़ने में लगे हुए हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे ग्वाला गाय के थनों से खींच खींचकर दूध निकालता है। यह सब देख कर मन बड़ा व्यथित होता है। भाजपा के कंट्रोलर संघ को बारीकी से यानी दूरबीन लगाकर इस ओर ध्यान देते हुए इनसे दूरी बनाकर रखनी चाहिए वर्ना अगले वर्ष होने वाले चुनावों में बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।