विजय गुप्ता की कलम से
मथुरा। बात लगभग आधी शताब्दी पुरानीं है। हमारे घर के पास एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति सड़क पर घिसट घिसट कर चल रहा था। वह भिखारी जैसी स्थिति में था तथा जहां तक मुझे ध्यान है उसे चर्मरोग भी था और सड़क पर घिसटने से उसके जख्म भी हो गए थे। और उसके बदन से बदबू भी बहुत आ रही थी। उसकी यह दर्दनाक हालत मुझसे देखी नहीं गई। मैंने अपनी साइकिल रोकी और पूंछा कि कहां के रहने वाले हो? उसने बताया कि औरंगाबाद, तब फिर मैंने पूंछा कि अपने घर पर जाना चाहते हो? उसने कहा हां, अब तो मैं जिस काम से जा रहा था उसे भूल गया और एक रिक्शा औरंगाबाद जो हाईवे के निकट है, के लिए कर लिया तथा उसे रिक्शेवाले की मदद से बिठवाकर चल दिया औरंगाबाद के लिए।
मैं रास्ते भर सोचता जा रहा था कि इसे अपने घर पहुंच कर जो खुशी मिलेगी उससे कहीं ज्यादा इसके घरवाले खुश हो जाएंगे। यानी दोनों ओर की डबल डबल खुशियां देखकर मुझे भी बड़ा सुख संतोष मिलेगा। उस समय बड़ी तेज गर्मी पड़ रही थी शायद जेठ या वैशाख का महीना रहा होगा। समय था टीकाटीक दुपहरी का। साइकिल चलाते-चलाते मैं न सिर्फ बुरी तरह थक गया बल्कि पसीने से तरबतर भी हो गया।
भले ही तेज गर्मी में मेरा बुरा हाल था किंतु अंदर का उत्साह ऐसा जबरदस्त कि पूंछो मत। क्योंकि दोनों ओर से टोकरा भर भर कर दुआएं मिलने की लालसा जो बलवती हो रही थी। जहां तक मुझे याद है औरंगाबाद पहुंचते-पहुंचते करीब डेढ़ दो घंटे लग गए। जैसे ही हमने औरंगाबाद में प्रवेश किया थोड़ा सा आगे चलते ही उल्टे हाथ की ओर एक बड़ा सा बाड़ा दिखाई दिया। उस बाड़े के निकट पहुंचते ही वह व्यक्ति चिल्लाया कि यही है मेरा घर। मैंने रिक्शे को रुकवाया और जैसे ही उसे धीरे-धीरे उतारने लगे वैसे ही वहां मौजूद उसके घरवाले चिल्लाने लगे के अरे यह तो फिर आ गया। इसके बाद न सिर्फ घरवाले बल्कि आसपास के लोगों की भीड़ एकत्र होने लगी तथा सभी लोग एक स्वर से कहने लगे कि अरे इसे यहां क्यों लाए हो? इसे यहां से ले जाओ वगैरा वगैरा।
मैं भौचक्का सा होकर इधर-उधर देखने लगा तथा उन लोगों से पूंछा कि आखिर बात क्या है क्यों अपने परिजन के साथ इस प्रकार का बर्ताव कर रहे हो? वहां मौजूद कुछ लोगों ने बताया कि यह पुराने समय का बहुत बड़ा बदमाश है। इसने औरंगाबाद में बड़े जघन्य अन्याय, अत्याचार तथा ऐसे वीभत्स जुल्म ढाए कि औरंगाबाद गांव के लोग हा-हाकार कर उठे थे।
लोगों ने बताया कि आगे चलकर समय ने ऐसा पलटा खाया कि यह न सिर्फ तमाम बीमारियों से घिर गया बल्कि इसके पैर भी मारे गए। संभवतः इसी दौरान उसे कुष्ठ रोग भी हो गया। घरवालों ने भी ऐसी स्थिति में मुंह मोड़ लिया और वह उसे दूर जाकर छोड़ आते तथा वह भीख मांग मांग कर अपना गुजारा करता व जब भी कभी कोई दयालु व्यक्ति इसके मिन्नत करने पर घर छोड़ जाता और फिर घरवाले पुनः दूर छोड़ आते थे। यह सिलसिला काफी दिनों से चल रहा था।
यह सब सुनकर मेरा सिर चकरा गया। जब मैं वहां से वापस आने लगा तो वे लोग मेरे पीछे पड़ गए कि इसे वापस ले जाओ कहीं और किसी जगह पर छोड़ देना। मुझे बड़ी झुंझलाहट और खींज हुई और मैंने मन ही मन सोचा कि भाड़ में जाओ तुम और चूल्हे में जाय यह व्यक्ति। मैंने आव देखा न ताव तेजी से साइकिल दौड़ता हुआ वापस लौट आया।
इस प्रसंग को लिखने का मतलब यह है कि भगवान के यहां देर है अंधेर नहीं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन बाल बच्चों के लालन पालन व भरण-पोषण आदि के लिए इस शख्स ने इतने पाप किए ऐसे बुरे समय में उन्ही घर वालों तक ने उससे मुंह मोड़ लिया। जो लोग दिन-रात चोरी, डकैती, लूट, हत्या व अन्य प्रकार के गलत कार्यों के द्वारा धन अर्जित कर अपनी घर गृहस्थी को चला रहे हैं, उस सब पाप के उत्तरदाई वे स्वयं ही हैं। उस पाप की गठरी के बोझ को उन्ही को ढोना है, अन्य घरवालों को नहीं। भले ही इस जन्म में हो या अगले जन्म में। हिसाब किताब उसी से चुकता होगा। यह सच्ची कहानी इस बात का जीता जागता उदाहरण है।