Saturday, May 4, 2024
Homeविजय गुप्ता की कलम सेजिनके अंदर राष्ट्र भक्ति का सैलाब उमड़ता रहता था ऐसे थे बाबूलाल...

जिनके अंदर राष्ट्र भक्ति का सैलाब उमड़ता रहता था ऐसे थे बाबूलाल जी

मथुरा। अगर कोई मुझसे पूछे कि राष्ट्र के प्रति सबसे ज्यादा समर्पित व्यक्ति कौन है? जिसे देखा और खुद परखा हो तो मैं कहूंगा बाबूलाल होटल वाले।
मेरे ये शब्द कोई दिखावटी या बनावटी नहीं बल्कि यथार्थ हैं। वैश्य परिवार में जन्मे देहाती से दिखने वाले बाबूलाल जी का शारीरिक कद भले ही मध्यम रहा हो किंतु अपनी मातृभूमि और अपने हिंदू समाज के प्रति समर्पण की अनूठी भावना के कारण उनका कद गगनचुंबी था। भोले भाले सीधे-साधे बाबूलाल जी अंतर्मुखी स्वभाव वाले ग्रहस्थ के सच्चे संत थे। सेवा ही संकल्प उनके जीवन का मूल मंत्र था। उनकी विलक्षणतायें ऐसी अजब गजब थीं कि कोई आसानी से विश्वास नहीं कर सकता।
सबसे बड़ी विचित्र बात जो मैंने स्वयं भी महसूस की थी कि वे कभी-कभी सामने वाले के मनोभाव व अंदरूनी परिस्थितियों को भांपकर सही दिशा दिखाने व समझाने की कोशिश करते थे। उनका यह व्यवहार उसी के साथ होता जिसमें उनका आत्मिक प्रेम हो। उन भाग्यशालियों में मैं स्वयं भी हूं। हमारे पिताजी से उनका खास प्रेम था तथा शाखा भी अक्सर साथ-साथ जाते थे। उस समय मैं बहुत छोटा था शायद चार-पांच वर्ष का। पिताजी के साथ मैं भी जाता था, पिताजी की उंगली पकड़कर।
बाबूलाल जी की कुछ विलक्षणतायें बताता हूं। लगभग पैंसठ सत्तर वर्ष पूर्व की बात है। गुरु गोल्वरकर जी की गिरफ्तारी के विरोध में आंदोलन चल रहा था। मथुरा से एक जत्था सत्याग्रहियों का लखनऊ के लिए रवाना होना था। उन दिनों बाबूलाल जी की पान व लैमन सोड़ा की दुकान छत्ता बाजार में हनुमान गली के निकट थी। दोपहर का समय था दुकान पर किशोर उम्र का उनका एकमात्र यानी एकलौता लड़का रमेश आया तो वे बोले कि तू आ गया अब मैं जा रहा हूं। लड़के ने समझा रोजाना की तरह घर पर खाना खाने जा रहे होंगे। इसके बाद वे खाना खा कर लौटे नहीं तो बेटे ने सोचा कि हो सकता है घर पर कोई काम लग गया होगा। अतः वह शाम को जल्दी दुकान बंद करके घर गया तो पता चला बाबू लाल जी घर पर पहुंचे ही नहीं।
अब तो घर में मां बेटे को घबराहट हुई तथा चारों तरफ ढूंढ ढकोर हुई किंतु पता नहीं चला। शेष में हार झक मार कर चुपचाप बैठ गए। कुछ दिन बाद उनका पत्र आया कि मुझे मीसा में बंद कर दिया गया है। मैं लखनऊ जेल में ठीक-ठाक हूं किसी बात की चिंता मत करना उन्होंने लिखा कि मुझे तीन माह की जेल हो गई है। जेल से छूट कर आ जाऊंगा। मामला यह था कि वे दुकान से घर न जाकर बिना बताए स्टेशन चले गए सत्याग्रहीयों को विदा करने। वहां पर सत्याग्रहीयों की संख्या कम थी तथा संघ के वरिष्ठ लोगों ने कहा कि बाबूलाल जी तुम भी चले जाओ लखनऊ, तो बाबूलाल जी झट से तैयार हो गए और बैठ गए रेल में। बाबूलाल जी ने न घर की चिंता की और ना ही उन्हें दुकान का होश रहा। इसी चक्कर में दुकान भी बंद हो गई और घर में खाने पीने तक के लाले पड़ गए। लखनऊ से आने के बाद उन्होंने कंसखार पर भोजन करने वाला होटल खोला। जिसका नाम था गुजराती होटल।
दूसरी घटना सन 1965 की है जब दिल्ली में गौरक्षा को लेकर बहुत जबरदस्त आंदोलन हुआ तथा अनेक लोग मारे गए थे। उस समय भी बाबूलाल जी बगैर घरवालों को बताये चुपचाप अन्य सत्याग्रहियों के साथ चले गए। वहां उनकी भी गिरफ्तारी हुई तथा दो माह जेल में काटे। वहां से भी कुछ दिन बाद पत्र आया कि मैं तिहाड़ जेल में हूं। जेल से छूटते ही घर आऊंगा। जाते समय उन्होंने घर पर इसलिए नहीं बताया कि पत्नी व पुत्र जाने नहीं देते।
तीसरी घटना उस समय की है जब अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन चल रहा था। उस दौरान ये जीवन की अंतिम बेला में थे तथा लगभग डेढ़ वर्ष इन्होंने चारपाई पर ही बिताए क्योंकि इन्हें पक्षाघात हो गया था। उस समय इन्हें एक ही रटना लगी रहती कि मुझे अयोध्या ले चलो। पत्नी व पुत्र कहते कि आपको हाथों से खाना खिलाया जा रहा है तथा सब काम चारपाई पर ही हो रहे हैं। दीपावली का त्यौहार सिर पर है ऐसी स्थिति में अयोध्या के बबाल में कैसे ले चलें? जैसे तैसे बड़ी मुश्किल से इन्हें समझाया गया।
चौथी घटना उन्हीं दिनों की है जब ये चारपाई पर थे। चुनाव में वोट देने का समय आया और ये जिद पकड़ गए कि मुझे वोट डालने जाना है। हालत गंभीर, घर वाले परेशान, इस पर इन्होंने कह दिया कि तभी कुछ खाऊंगा पीऊंगा जब तक कि वोट न डाल लूं। इन्होंने खाना तो दूर पानीं भी नहीं पिया। इस पर पुत्र रमेश गोदी में उठाकर गली के बाहर रामजी द्वारे मतदान केन्द्र तक लेकर गये और जब इन्होंने वोट डाल दिया तब इन्हें चैन पड़ा और घर आकर खाना खाया व पानीं पीया।
इनके पुत्र रमेश बाबू बताते हैं कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण हम इन्हें उपचार हेतु दिल्ली भी नहीं ले जा सके तथा कुछ दिन मैथोडिस्ट अस्पताल में रखा इसके बाद घर ले आऐ। जहां तक आर्थिक स्थिति की बात है तो यह स्थिति तो आज भी बहुत अच्छी नहीं है किंतु चैंकाने वाली बात यह है कि आज भी इनके होटल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जो प्रचारक पदाधिकारी व अन्य स्वयंसेवकों के जत्थे आते हैं उन्हें भी निःशुल्क भोजन कराया जाता है।
बाबूलाल जी के होटल में अटल बिहारी वाजपेई, रज्जू भैया, नानाजी देशमुख, पंडित दीनदयाल उपाध्याय तथा जगन्नाथ राव जोशी जैसी हस्तियां आकर भोजन कर चुकी हैं। इसके अलावा चाहे आपातकाल का दौर रहा हो अथवा अन्य कोई मौका जब-जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शीर्षस्थ हस्तियां मथुरा के कंस किले, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गढ़ है पर अथवा अन्यत्र स्थानों पर आईं सभी के लिए यहीं से भोजन तैयार होकर जाता रहा। बाबूलाल जी ने कभी किसी से एक भी पैसा नहीं लिया।
आपातकाल के दौरान का एक रोचक किस्सा भी आपको बताता हूं। एक बार किसी ने इनकी शिकायत कर दी थी कि इनके यहां रज्जू भैया आऐ और तीन दिन होटल में रुके व खाना खाया कोतवाल ने इन्हें गिरफ्तार कराकर कोतवाली में बुलवाया तथा पूछा कि रज्जू भैया आपके यहां आऐ। इन्होंने सच-सच बता दिया कि हां साहब आऐ। इसके बाद कोतवाल ने पूछा कि क्या करने आऐ? तो उन्होंने कहा कि खाना खाने। कोतवाल ने फिर पूछा कि ठहरे भी तो थे तुम्हारे होटल में, इस पर इन्होंने कहा कि साहब हमारा होटल तो सिर्फ खाने का है ठहरने का नहीं।
इसके बाद कोतवाल ने जांच कराई तो जो सच्चाई थी वह सामने आ गई कि होटल सिर्फ खाने का ही था। फिर भी कोतवाल ने इन्हें दो दिन तक कोतवाली में ही बंद रखा क्योंकि रज्जू भैया खाना खाने तो आऐ ही थे। पुलिस की नजर में तो यह भी गुनाह हो गया। दूसरे दिन इन्होंने कोतवाल से कहा कि साहब आपके नाती का जन्मदिन है। अगर अनुमति हो तो जन्मदिन में शामिल हो जाऊं।
कोतवाल इनकी भोली भाली सूरत व सीधेपन से प्रभावित था, उसने कहा कि चले जाओ पर सुबह आठ बजे आ जाना। बाबूलाल जी घर चले गए और दूसरे दिन अपना बिस्तर भी साथ लेकर सुबह सात बजे ही कोतवाली पहुंच गए और कोतवाल के घर का दरवाजा खटखटा दिया। कोतवाल बाहर आए और उन्होंने बाबूलाल जी को देखा, तो झल्लाकर बोले कि बाबूलाल मैंने तुम्हें आठ बजे आने को कहा था और तुमने सात बजे ही आकर मुझे जगा दिया। इस पर बाबूलाल जी ने हाथ जोड़कर कहा कि सरकार क्या सात और क्या आठ आना है तो आना ही है।
इनके भोलेपन पर कोतवाल भी मुग्ध हो गए और बोले कि ठीक है अब तुम घर जाओ इस पर बाबूलाल जी ने कहा कि अब फिर कब आऊं? इतना सुनकर कोतवाल और भी मुरीद हो उठे और बोले कि अब तुम्हें आने की जरूरत नहीं यदि होगी तो हम बुला लेंगे। बाबूलाल जी के बारे में यदि विस्तार से लिखा जाय तो ग्रंथ बन जायगा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय से जुड़ा एक रोचक किस्सा और बताता हूं। एक बार दीनदयाल जी कहीं बाहर से आऐ और होलीगेट होकर रिक्शे से संघ के गढ़ कंस किले की ओर जा रहे थे। सावन का महीना था अतः पुलिस वालों ने भीड़ के कारण रिक्शे को होली गेट अंदर जाने से रोक दिया।
फिर क्या था पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने थैले को हाथ में लिया तथा बिस्तर बंद को कंधे पर लादकर होलीगेट के अंदर बढ़ने लगे तभी किसी ने उन्हें पहचान लिया और दौड़कर बाबूलाल जी के होटल पर सूचना दी। उस समय बाबूलाल जी मौजूद नहीं थे, उनके पुत्र रमेश ही थे वे दौड़े-दौड़े गए तथा दीनदयाल जी को अपने होटल पर लाये। वहां उन्होंने मुंह हाथ धोए व तृप्त होकर भोजन किया उसके बाद फिर वे कंस किले पर चले गए।
राष्ट्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति समर्पण की कितनी जबरदस्त भावना थी बाबूलाल जी के अंदर वह कल्पना से भी परे है। उनका होटल आज भी वैसा ही साधारण है जैसा पचास साठ वर्ष पूर्व था। वे अक्सर धार्मिक पुस्तकें कल्याण आदि पढ़ते दिखाई देते थे। आज भी जब कभी मैं वहां जाकर बैठता हूं तो मंदिर या किसी साधु के आश्रम जैसी अनुभूति होती है। ऐसे महापुरुष को मेरा कोटि-कोटि नमन।

विजय गुप्ता की कलम से

RELATED ARTICLES
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments